Tuesday, November 18, 2014
Kahi-Unkahi: मुस्कान
Kahi-Unkahi: मुस्कान: सर्दियों के दिन थे , सुबह का समय था, मैं अपने बिस्तर से उठा व रोज़मर्रा की तरह भगवन को माथा टेकने के बाद अखबार की हेडलाइंस को पढ़ने लगा। क...
ही इज़ डेड - A short Story
अँधेरे को चीरते हुए सूरज की पहली किरणों ने शहर में रौशनी फैलानी शुरू कर दी थी। कुछ लोग तो उजाला होने से पहले ही सुबह की सैर पर निकल चुके थे तो कुछ लोग अब अपने घरों से निकल रहे थे। ये वह लोग थे जिन्हें अपनी सेहत की फिक्र रहती है , तो काफ़ी लोग ऐसे भी थे जो अभीभी सो रहे थे। सुबह सुबह सड़क पर इक्का दुक्का वाहन देखने को मिल जाते थे। लेकिन यह बात तो तय थी कि चंद घंटों में यह शहर फिर अपनी उसी रफ़्तार से दौड़ने लगेगा, जिसके लिए यह जाना जाता है।
इसी शहर के बीच में एक छोटी सी बस्ती थी जहाँ कई झुग्गी झपड़ियां थीं। कुछ लोगों ने बांस के ढांचों पर फटी हुई बोरियों से छत बना रखी थी और बारिश से बचने के लिए उसके ऊपर प्लास्टिक की शीट को पत्थर व ईंटों से दबा रखा था। जिन के पास थोड़ा ज़्याद पैसा था उन्होंने छत पर टाट बिछाया हुआ था। बस्ती में ज़्यादातर मज़दूर रहते थे, जो मेहनत मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे। इसी बस्ती में धनु भी अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहता था। एक हाथ ठेला था उसके पास और पति पत्नी दोनों ही सुबह से लेकर देर शाम तक उस ठेले पर माल ढोने का काम करते थे। दिनभर में जो भी कमाते शाम को सब्ज़ी तेल व खाने की अन्य वास्तुओं पर खर्च कर देते थे, अगर किसी दिन थोड़ी कमाई ज़्यादा हो जाती तो बचा हुआ पैसा अपनी बचत में जुड़ जाता था जो किसी दिन कमाई कम होने पर काम में आता था। ऐसे हमारे देश में कितने ही लोग हैं जिन्हे अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपनी रोज़ की कमाई के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। चंदा रोज़ दिनभर मेहनत करने के बाद रात को घर पहुँच कर अपने परिवार के लिए खाना बनाती थी। बच्चे भी अँधेरा होते ही अपने माता पिता का इंतज़ार करने लगते, कि कब वह आएंगे और कब उनको रात का खाना मिलेगा।
ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी।
सुबह के दस बजने को थे और शहर धीरे धीरे अपनी रफ़्तार पकड़ चूका था , लोग काम काज के लिए अपने अपने घरों से निकल चुके थे, इसी वजह से सड़क पर भी ट्रैफिक बढ़ गया था, दू पहियां व चार पहिया वाहनों की लम्बी लम्बी कतारें लगी हुईं थीं। मार्किट में कुछ दुकानें खुल चुकी थीं तो कुछ दुकानें थोड़ी देर में खुलने वालीं थीं।
चंदा ने भी अपने दोनों बच्चों को एक एक रोटी बनाकर चाय के साथ खिला दी थी व दोपहर के खाने के लिए दो दो रोटियां व थोड़ी सब्ज़ी रख दी थी तथा अपना व अपने पति का टिफिन बांध कर तैयार कर लिया था।
'ए चंदा जल्दी कर ' धनु ने अपने ठेले को खिंच कर अपनी झोंपड़ी के सामने लाते हुए चंदा को आवाज़ दी।
'बस आई ' चलते हुए उसने अपनी बड़ी बेटी से कहा 'देख तुम दोनों की रोटी वहां रखी है , दोपहर को अपने भाई को भी खिला देना और खुद भी खा लेना , भाई का ध्यान रखना और लड़ना नहीं। ' कहती हुई चंदा बहार निकल गयी।
सुबह जाते समय ठेला खाली होता था इसलिए चंदा पीछे ठेले में बैठ गई और धनु एक तरफ का हथ्था पकड़ कर ठेले को खिंच कर ले चला। यह उनका रोज़ का रूटीन था, चूँकि जाते समय और आते समय ठेला खाली होता था इसलिए चंदा पीछे बैठ जाती और धनु उस ठेले को खिंच कर ले जाता था।
बाज़ार में एक बड़े व्यापारी की दुकान थी और धनु वंही उस दुकान के सामने ले जा कर अपने ठेले को खड़ा कर देता था। अगर उस व्यापारी के पास ज़्यादा काम न होता तो वह मार्किट में दो तीन और बड़े व्यापारियों से मिलने चला जाता, काम की तलाश में। आज सुबह से धनु को एक दो नज़दीक की डिलीवरी का काम ही मिला था इसलिए अभीतक ज़्यादा कमाई भी नहीं हुई थी। इसी तरह दोपहर हो गई थी। धनु ने अपने अंगोछे से पसीना पोंछते हुए चंदा से कहा 'आज तो पूरी मार्किट में सन्नाटा पसरा हुआ है किसी के पास कुछ काम ही नहीं है ' धनु ने निराशा से चंदा की तरफ देखते हुए कहा
"चल खाना खा लेते हैं, भूख भी लगी है।" कहते हुए धनु ने अपना ठेला सड़क के एकतरफ फूटपाथ के पास लगा दिया और दोनों ठेले पर बैठ कर खाना खाने लगे।
"चल खाना खा लेते हैं, भूख भी लगी है।" कहते हुए धनु ने अपना ठेला सड़क के एकतरफ फूटपाथ के पास लगा दिया और दोनों ठेले पर बैठ कर खाना खाने लगे।
धनु ने अभी आखरी निवाला मुह में रखा ही था कि सामने मार्किट में काफी शोर गुल सुनाई देने लगा, लोग हफरा तफरी में इधर उधर भागते नज़र आ रहे थे। धनु और चंदा ने उत्सुकता से उस तरफ देखा और अपना आखरी निवाला गले से नीचे उतारते हुए धनु ने चंदा से कहा "तुम यहीं बैठो मैं जाकर देख कर आता हूँ" कहता हुआ धनु मार्किट की तरफ भागा। वहां पहुँच कर उसने देखा लोग इधर से उधर भाग रहे हैं, व्यापारी अपनी अपनी दुकानों के शटर नीचे गिरा रहे हैं। घबरा के उसने एक दो लोगों से पूछा मगर सभी दौड़ने में लगे हुए थे किसीको उत्तर देने की फुर्सत नहीं थी। तभी एक वयापारी के वहां काम करने वाले एक आदमी ने धनु को देखते ही कहा
"ऐ धनु भागो यहाँ से पूरी मार्किट बंद हो गयी हे"
"हाँ मगर हुआ क्या ?" धनु ने उत्सुकतावश पूछा
"अरे, किन्ही दो गुटों के बीच झगड़ा हो गया है, किसीने एक आदमी को चाकू भी मार दिया है और आगे दो तीन वाहन भी जला दिए हैं।" उस व्यक्ति ने जवाब दिया और जल्दी से आगे निकल गया।
"ऐ धनु भागो यहाँ से पूरी मार्किट बंद हो गयी हे"
"हाँ मगर हुआ क्या ?" धनु ने उत्सुकतावश पूछा
"अरे, किन्ही दो गुटों के बीच झगड़ा हो गया है, किसीने एक आदमी को चाकू भी मार दिया है और आगे दो तीन वाहन भी जला दिए हैं।" उस व्यक्ति ने जवाब दिया और जल्दी से आगे निकल गया।
पुलिस की गाड़ियां भी अब वहां पहुंच चुकी थीं। उन्होंने आते ही लोगों को तीतर बीतर करने की कोशिश में लाठी चलानी शुरू कर दी थी। लोग अपने अपने घरों की तरफ भाग रहे थे। अबतक पूरी मार्किट बंद हो चुकी थी। धनु दिल ही दिल में सोच रहा था
"आज तो अभीतक ज़्यादा कमाई भी नहीं हुई थी" बड़ी मायूसी के साथ वह मुड़ा और चंदा की तरफ भागा। चंदा के पास पहुँच कर उसने कहा "चंदा शहर में दंगा भड़क गया है और सारी मार्किट बंद हो गयी है , हमें भी घर जाना होगा, घर पर बच्चे भी अकेले हैं।"
''मगर अभी तो …" चंदा कुछ कहना चाहती थी मगर उसकी बात को बीच में ही काटते हुए धनु ने कहा
"और कोई चारा नहीं है कोई भी दूकान खुली नहीं है" दोनों ही के चेहरे पर मायूसी के भाव साफ़ झलक रहे थे, मगर अब वह घर की तरफ बढ़ चले थे।
"आज तो अभीतक ज़्यादा कमाई भी नहीं हुई थी" बड़ी मायूसी के साथ वह मुड़ा और चंदा की तरफ भागा। चंदा के पास पहुँच कर उसने कहा "चंदा शहर में दंगा भड़क गया है और सारी मार्किट बंद हो गयी है , हमें भी घर जाना होगा, घर पर बच्चे भी अकेले हैं।"
''मगर अभी तो …" चंदा कुछ कहना चाहती थी मगर उसकी बात को बीच में ही काटते हुए धनु ने कहा
"और कोई चारा नहीं है कोई भी दूकान खुली नहीं है" दोनों ही के चेहरे पर मायूसी के भाव साफ़ झलक रहे थे, मगर अब वह घर की तरफ बढ़ चले थे।
शाम होते होते शहर में दंगा और भी कई जगहों में फैल गया था , रात भर बाहर सड़क पर पुलिस गाड़ियों की सायरन की आवाज़ें आती रहीं, चंदा और धनु के चेहरे पर चिंता के भाव साफ झलक रहे थे। अगले दिन सुबह धनु उठा तो देखा बहार सड़क पर पुलिस के सिपाही गश्त लगा रहे हैं, उसने उनके पास जाते हुए एक सिपाही से पूछा तो पता चला कि दंगा काफी भड़क गया है और इसीलिए पुरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है। उस रोज़ धनु और चंदा पूरा दिन घर पर ही रहे। अगले दिन कर्फ्यू में पांच घंटे की ढील दी गयी थी तो धनु और चंदा तुरंत अपने काम पर निकल गए। अभी मुश्किल से एक घंटा ही बीता होगा कि शहर में फिर दंगा भड़क उठा। पूरी मार्किट बंद हो गई तो धनु और चंदा भी मायूसी के साथ घर वापस लौट आये।
पुरे शहर में सन्नाटा पसरा हुआ था, दंगा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अगर कभी कर्फ्यू में ढील दी भी जाती तो पूरे शहर में दंगा फिर भड़क उठता था। दिन बीतने लगे। अब तो धनु के घर में जमा किया हुआ अनाज भी खत्म होने लगा था, पैसों की भी तंगी महसूस हो रही थी।
जब दंगे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे तो सरकार ने आर्मी को बुला लिया था, हाथ में राइफल लिए आर्मी के जवान पुरे शहर में गश्त लगाते थे। आर्मी के जवानों का एक कैंप बस्ती के सामने ही लगा हुआ था, धनु वहीँ जवानों से बात कर के स्थिति का हाल जानने की कोशिश करता था। मगर जवानों के जवाब से उसे निराशा ही मिलती।
सुबह का समय था धनु अपनी झोंपड़ी के बाहर बैठा था तभी दो जवान हाथ में दूध की थैली लिए धनु के पास आये और उसके हाथ में दूध की थेली देते हुए एक ने कहा
"धनु येलो दूध ज़रा अपनी बीवी से कह कर चाय बनवा दो"
"धनु येलो दूध ज़रा अपनी बीवी से कह कर चाय बनवा दो"
"साहब" बड़ी ही मायूसी के साथ धनु ने कहा "घर में चाय पत्ती भी खत्म हो गई हे और चीनी भी नहीं है, कल रात से मेरे बच्चों ने कुछ भी नहीं खाया" कहते हुए धनु की आँखे भर आयीं। जवान ने उसकी आँखों में देखा और उसके हाथों में दूध की थैली थमाते हुए कहा
"ये लो ये दूध तुम रखो अपने बच्चों को दे देना" धनु के काफी मना करने पर भी वह नहीं माने और वहां से चले गए। दोपहर को वही दो जवान हाथ में एक पैकेट लिए हुए आये और वह पैकेट धनु के हाथों में थमाते हुए उनमें से एक ने कहा
"ये लो इसमें खाना है तुम सभी खा लेना" धनु ने जवान के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा 'साहब हम गरीब ज़रूर हैं पर भिखारी नहीं।
"धनु ये भीख नहीं, हम भी तो तुम्हारे दोस्त हैं ?" एक जवान ने धनु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा
"साहब, ये दंगा करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारे जैसे कितने ही लोग हैं जो रोज़ कमाते हैं और रोज़ खाते हैं , अगर चार दिन मार्किट बंद हो जाये तो उनके घर का चूल्हा बंद हो जाता है , उनके बच्चों को भूखे ही सोना पड़ता है। साहब मैं और मेरी बीवी सुबह से लेकर रात तक मेहनत मज़दूरी करते हैं मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते।"
"ये लो ये दूध तुम रखो अपने बच्चों को दे देना" धनु के काफी मना करने पर भी वह नहीं माने और वहां से चले गए। दोपहर को वही दो जवान हाथ में एक पैकेट लिए हुए आये और वह पैकेट धनु के हाथों में थमाते हुए उनमें से एक ने कहा
"ये लो इसमें खाना है तुम सभी खा लेना" धनु ने जवान के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा 'साहब हम गरीब ज़रूर हैं पर भिखारी नहीं।
"धनु ये भीख नहीं, हम भी तो तुम्हारे दोस्त हैं ?" एक जवान ने धनु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा
"साहब, ये दंगा करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारे जैसे कितने ही लोग हैं जो रोज़ कमाते हैं और रोज़ खाते हैं , अगर चार दिन मार्किट बंद हो जाये तो उनके घर का चूल्हा बंद हो जाता है , उनके बच्चों को भूखे ही सोना पड़ता है। साहब मैं और मेरी बीवी सुबह से लेकर रात तक मेहनत मज़दूरी करते हैं मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते।"
"धनु हम समझते हैं , मगर यह खाना अगर अपने बच्चों को नहीं खिलओगे तो वह भूखे ही दम तोड़ देंगे, क्या ये तुम्हें मंज़ूर होगा ?" जवान ने उसे समझाते हुए कहा। धनु भी जानता था इस बात को इसलिए मज़बूरी में उसने वह खाना ले लिया। जवानों के जाने के बाद वह खाना अपनी पत्नी के हाथों में थमाते हुए उसने कहा
"ये लो खाना थोड़ा बच्चों को खिला दो थोड़ा खुद खा लेना और थोड़ा रात के लिए बचा लेना"
"तुम नहीं खाओगे क्या ?" चंदा ने पूछा 'नहीं तुम लोग खा लो' चंदा के लाख कहने पर भी धनु ने खाना नहीं खाया।
"ये लो खाना थोड़ा बच्चों को खिला दो थोड़ा खुद खा लेना और थोड़ा रात के लिए बचा लेना"
"तुम नहीं खाओगे क्या ?" चंदा ने पूछा 'नहीं तुम लोग खा लो' चंदा के लाख कहने पर भी धनु ने खाना नहीं खाया।
इसी तरह तीन चार दिन और बीत गए। आर्मी के जवान रोज़ सुबह धनु को दूध की थैली और दोपहर व रात का खाना दे जाते थे, चंदा और आर्मी के जवानों के लाख समझाने पर भी धनु कुछ नहीं खाता था, वह सिर्फ एक ही बात कहता
"मैं अपने बच्चों का पेट नहीं भर सकता तो मुझे इस तरह दिया हुआ खाना खाने का कोई हक़ नहीं, अगर बच्चों की चिंता नहीं होती तो मैं यह खाना कभी नहीं लेता।"
दिन गुज़रते रहे इसी तरह और दो दिन बीत गए, धनु अब बहुत ही कमज़ोर हो गया था। चंदा को अब धनु की चिंता सताने लगी थी। वह भगवन से कर्फ्यू जल्द से जल्द हटने की प्रार्थना करती रहती।
"मैं अपने बच्चों का पेट नहीं भर सकता तो मुझे इस तरह दिया हुआ खाना खाने का कोई हक़ नहीं, अगर बच्चों की चिंता नहीं होती तो मैं यह खाना कभी नहीं लेता।"
दिन गुज़रते रहे इसी तरह और दो दिन बीत गए, धनु अब बहुत ही कमज़ोर हो गया था। चंदा को अब धनु की चिंता सताने लगी थी। वह भगवन से कर्फ्यू जल्द से जल्द हटने की प्रार्थना करती रहती।
आज सुबह चंदा उठी तो उसने देखा धनु अभी सो रहा था, वह बाहर आ कर स्थिति का जायज़ा लेने लगी। तभी उसने देखा वही दो जवान भागते हुए उसी की तरफ़ आ रहे हैं, पास पहुँचते ही एक जवान बोला "स्तिथि में सुधार को देखते हुए आज कर्फ्यू में सुबह ९ बजे से शाम के ७ बजे तक ढील दी गयी है, धनु कहाँ है ?" उसने इधर उधर नज़र घूमते हुए पूछा।
चंदा ने जवाब देते हुए कहा "साहब वो तो अभी सो रहे हैं"
दोनों जवान अंदर की तरफ भागे, चंदा भी उनके पीछे थी। ख़ुशी से धनु की पीठ पर हाथ रखते हुए एक जवान बोला
"धनु आज कर्फ्यू में १० घंटे की छूट दी गई है, जल्दी से तैयार हो जाओ आज तुम्हे काम पर जाना है।"
मगर धनु ने कोई हरकत नहीं की, वह उसी तरह सोया रहा।
"धनु" ? जवान ने उसको ज़ोर से हिलाया तो धनु का शरीर एक तरफ लुढक गया। दोनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा, दोनों ही के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ़ देखि जा सकतीं थीं। एक जवान उसके दिल की धड़कन टटोलने लगा तो दूसरा उसके शरीर को।
"मैं डॉक्टर को लेकर आता हूँ तुम यहीं ठहरना" कहता हुआ एक जवान तेज़ी से बहार की तरफ भागा। पास ही खड़ी चंदा कुछ समझ नहीं पा रही थी उसने पास खड़े जवान से पूछा "क्या बात है साहब ? धनु उठ क्यों नहीं रहे ?"
जवान ने उत्तर देते हुए कहा "कोई बात नहीं है शायद कमज़ोरी की वजह से" तभी दूसरा जवान एक डॉक्टर के साथ अंदर दाखिल हुआ। डॉक्टर ने अच्छी तरह से धनु को चेक करने के बाद धीरे से एक जवान के पास अपना मुंह लेजाते हुए कहा
"ही इज़ डेड"
दोनों जवान की आँखों से आंसू बह निकले, उन्होंने मुड़ कर धनु के छोटे बच्चों और चंदा की तरफ देखा और उनमें से एक बोला
"धनु नहीं रहा।"
चंदा ने जवाब देते हुए कहा "साहब वो तो अभी सो रहे हैं"
दोनों जवान अंदर की तरफ भागे, चंदा भी उनके पीछे थी। ख़ुशी से धनु की पीठ पर हाथ रखते हुए एक जवान बोला
"धनु आज कर्फ्यू में १० घंटे की छूट दी गई है, जल्दी से तैयार हो जाओ आज तुम्हे काम पर जाना है।"
मगर धनु ने कोई हरकत नहीं की, वह उसी तरह सोया रहा।
"धनु" ? जवान ने उसको ज़ोर से हिलाया तो धनु का शरीर एक तरफ लुढक गया। दोनों ने एक दूसरे की आँखों में देखा, दोनों ही के चेहरों पर चिंता की लकीरें साफ़ देखि जा सकतीं थीं। एक जवान उसके दिल की धड़कन टटोलने लगा तो दूसरा उसके शरीर को।
"मैं डॉक्टर को लेकर आता हूँ तुम यहीं ठहरना" कहता हुआ एक जवान तेज़ी से बहार की तरफ भागा। पास ही खड़ी चंदा कुछ समझ नहीं पा रही थी उसने पास खड़े जवान से पूछा "क्या बात है साहब ? धनु उठ क्यों नहीं रहे ?"
जवान ने उत्तर देते हुए कहा "कोई बात नहीं है शायद कमज़ोरी की वजह से" तभी दूसरा जवान एक डॉक्टर के साथ अंदर दाखिल हुआ। डॉक्टर ने अच्छी तरह से धनु को चेक करने के बाद धीरे से एक जवान के पास अपना मुंह लेजाते हुए कहा
"ही इज़ डेड"
दोनों जवान की आँखों से आंसू बह निकले, उन्होंने मुड़ कर धनु के छोटे बच्चों और चंदा की तरफ देखा और उनमें से एक बोला
"धनु नहीं रहा।"
चंदा चीखी और भाग कर धनु के पास जा कर उसे ज़ोर से हिलाते हुए बोली
"उठो आज कर्फ्यू हट गया है, हमें काम पर जाना है, मैं अकेली कैसे माल ढोउंगी ? मैं अकेली ठेला कैसे चलाऊंगी ? उठो उठो ना।" चंदा ने अपने पति को झकझोरते हुए कहा।
मगर धनु तो अब किसी अलग ही दुनियां में चला गया था जहाँ शायद न कोई ठेला था, न कोई कर्फ्यू।
"उठो आज कर्फ्यू हट गया है, हमें काम पर जाना है, मैं अकेली कैसे माल ढोउंगी ? मैं अकेली ठेला कैसे चलाऊंगी ? उठो उठो ना।" चंदा ने अपने पति को झकझोरते हुए कहा।
मगर धनु तो अब किसी अलग ही दुनियां में चला गया था जहाँ शायद न कोई ठेला था, न कोई कर्फ्यू।
धनु को इस दुनिया से गए कुछ दिन हो गए थे। एक दिन सुबह वही दो जवान चंदा के पास आये और उसे हाथ जोड़ कर नमस्ते करते हुए एक ने कहा
"आज हम लोग वापस जा रहे हैं, जाने से पहले हमने सोचा आप को मिलते चलें। एक पैकेट चंदा के हाथ में थमाते हुए कहा "बस जाने से पहले आखरी बार खाना देने आएं हैं। हमने सरहद पर कई तरह की लड़ाई लड़ी हैं लेकिन यहाँ आकर हमने ज़िंदगी के साथ इस तरह की लड़ाई पहली बार देखी और महसूस की है। हमने पहली बार महसूस किया गरीबी क्या होती है, हमने पहली बार देखा कि कर्फ्यू कितने लोगों की जान लेता है। हमने पहली बार यह जाना कि आप लोग ज़िन्दगी से हर रोज़ एक नयी लड़ाई कैसे लड़ते हो। आपको भी अब अपनी ज़िन्दगी की इस लड़ाई को अकेले ही लड़ना होगा, अपने बच्चों के लिए।"
सुनते ही चंदा फूट फूट कर रोने लगी। जवान भी उसे दिलासा देते हुए अपनी आँखों में आंसू लिए वापस लौट गए।
"आज हम लोग वापस जा रहे हैं, जाने से पहले हमने सोचा आप को मिलते चलें। एक पैकेट चंदा के हाथ में थमाते हुए कहा "बस जाने से पहले आखरी बार खाना देने आएं हैं। हमने सरहद पर कई तरह की लड़ाई लड़ी हैं लेकिन यहाँ आकर हमने ज़िंदगी के साथ इस तरह की लड़ाई पहली बार देखी और महसूस की है। हमने पहली बार महसूस किया गरीबी क्या होती है, हमने पहली बार देखा कि कर्फ्यू कितने लोगों की जान लेता है। हमने पहली बार यह जाना कि आप लोग ज़िन्दगी से हर रोज़ एक नयी लड़ाई कैसे लड़ते हो। आपको भी अब अपनी ज़िन्दगी की इस लड़ाई को अकेले ही लड़ना होगा, अपने बच्चों के लिए।"
सुनते ही चंदा फूट फूट कर रोने लगी। जवान भी उसे दिलासा देते हुए अपनी आँखों में आंसू लिए वापस लौट गए।
चंदा वहीँ बैठी गहरी सोच में डूबी रही, वह सोच रही थी कि धनु के जाने के बाद अब उसी को ही अपने बच्चों का पेट पालने के लिए काम करना होगा। कैसे कर पायेगी वह ? वह गहरी चिंता में बैठी काफ़ी देर सोचती रही। मगर फिर अपने दिल को मज़बूत करते हुए अपने आंसू पोंछे और उठ खड़ी हुई।
अगले दिन सुबह उसने अपने पहले वाले रूटीन की तरह बच्चों को नाश्ता करवा कर उनका दोपहर का खाना रख दिया और अपना खाना पैक करके वह चल पड़ी, ठेले की तरफ़। ऑंखें भरी हुईं थीं, उसने आस पास नज़र घुमाई और सोचने लगी "कहीं कुछ भी नहीं बदला था, सभी कुछ वैसा ही चल रहा था, मगर उसकी और उसके बच्चों की ज़िन्दगी पूरी तरह बदल चुकी थी।"
आँखों में आंसू लिए चंदा ने अपना ठेला उठाया, आज धनु नहीं था उसके साथ आज वह पीछे नहीं बैठी थी। लेकिन बस अब यही उसकी ज़िन्दगी थी और उसे इसी अकेलेपन में जीना था।
आँखों में आंसू लिए चंदा ने अपना ठेला उठाया, आज धनु नहीं था उसके साथ आज वह पीछे नहीं बैठी थी। लेकिन बस अब यही उसकी ज़िन्दगी थी और उसे इसी अकेलेपन में जीना था।
इंसान चला जाता है मगर यादें सदा ज़िंदा रहती हैं
Kapildev Kohhli
Saturday, November 15, 2014
मुस्कान
सर्दियों के दिन थे , सुबह का समय था, मैं अपने बिस्तर से उठा व रोज़मर्रा की तरह भगवन को माथा टेकने के बाद अखबार की हेडलाइंस को पढ़ने लगा। कुछ भी इंटरेस्टिंग नहीं लगने से मैं अखबार के पन्ने पलटने लगा। अख़बार की ख़बरों में कुछ भी नया नहीं था, वही आतंकवाद की ख़बरें और राजनितिक पार्टियों का एक दूसरे पर हमला। स्पोर्ट्स की ख़बरें पढ़ने के बाद जब मैं अखबार को लपेट कर रख रहा था कि मेरी नज़र एक छोटी सी हैडलाइन पर थम गई, लिखा था "सर्दी की वजह से देश के अलग अलग जगहों पर कुल १२ लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी।" मैंने पूरी खबर को एक ही सांस में पढ़ा।
मैं सोचने लगा मौसम चाहे कोई भी हो गर्मी, बारिश यां सर्दियाँ मरना तो गरीब को ही पड़ता है।
कितने अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के इतने सालों के बाद भी हमारी सरकारें इन गरीबों को रहने के लिए एक माकन और तन ढकने के लिए कपड़े यां सर्दी से बचने के लिए एक कम्बल तक मुहईय्या नहीं करवा पाई, गरीबी की वजह से हमारे देश में न जाने कितने बच्चों को अपने माँ बाप और न जाने कितने माँ बाप को अपने बच्चे गवाने पड़ते हैं। यह सिलसिला न जाने कितने सालों से चला आ रहा है और न जाने आनेवाले कितने सालों तक चलता रहेगा। कब ऐसी कोई सरकार आएगी जिसका ध्यान इन गरीबों की तरफ भी जाएगा ?
मैं बुझे मन से अख़बार को वहीँ रख कर उठ खड़ा हुआ। चूँकि रविवार का दिन था इसलिए मैं अपने सारे कार्य आराम से कर रहा था। मगर न जाने क्यों मन अंदर से काफी उदास व बुझा बुझा सा लग रहा था।
नहा धो कर पूजा करने के बाद मैं टीवी के सामने बैठ कर कोई प्रोग्राम देखने लगा, मगर मन पता नहीं क्यों वहां भी नहीं लग रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मन इतना उदास सा क्यों है ?
जब भी मैं अपने आप को डल या उदासीन महसूस करता हूँ तो मैं अक्सर कोई पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगता हूँ। मैंने आज भी वही किया,एक पुस्तक निकाली और अपने आप को उसमें डुबो दिया।
दोपहर का खाना खा कर मैं सो गया।
शाम को जब नींद खुली तो महसूस किया कि ठण्ड काफी बढ़ गई है। मैंने अपने सामने अपनी पत्नी को बैठी पाया, जो शायद मेरी नींद खुलने का इंतज़ार कर रही थी। उसने एक शाल ओढ़ रखी थी, मैं उसे इसी शाल को पिछली पांच छे सर्दियों से ओढ़ते हुए देख रहा था। मैं कुछ पल उसे देखता रहा, फिर मन ही मन में सोचा क्यों ना आज पत्नी को एक सरप्राइज दिया जाए ? उसे आज एक नया शाल ला कर दूँ ! मैं उठा, स्वेटर पहना और पत्नी से यह कर कि "मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ", चल दिया उसके लिए एक शाल खरीदने।
एक अच्छा सा शाल खरीदकर उसे अच्छी तरह से पैक करवा कर मैं वापस घर की तरफ चल दिया। मन ही मन मैं सोच रहा था कि शाल को देख कर पत्नी कितनी खुश हो जाएगी।
मैं आधे रास्ते ही पहुंचा था कि सामने का दृश्य देख कर मेरा पाँव अनायास ही बाइक की ब्रेक पर ज़ोर से पड़ा, बाइक को रोक कर मैं अपने सामने के उस दृश्य को देखता रहा। वहां फुटपाथ पर एक शायद आठ वर्ष का लड़का और शायद दस वर्ष की लड़की एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर चिपक कर बैठे हुए थे। उनके कपडे पुराने व कई जगह से फटे हुए थे। शायद अधिक सर्दी की वजह से वे दोनों एक दूसरे के साथ सट कर बैठे थे।
मैं कुछ देर यूंही खड़ा उन्हें देखता रहा, फिर मैंने अपनी बाइक को सड़क किनारे खड़ी की और हाथ में दबे पैकेट, जिसमे अभी खरीदी हुई शाल थी,लिए उनकी तरफ बढ़ गया।
मैं उनके पास पहुंचा और पूछा "क्या नाम है तुम्हारा ?"
लड़का उत्तर देने की बजाय उस लड़की को देख कर मुस्कुराने लगा। मैंने फिर अपना सवाल दोहराया तो उस लड़की ने उत्तर दिया
"मेरा नाम शीला है और इसका नाम चुन्नू , ये मेरा भाई है। "
"क्या तुम्हे सर्दी लग रही है ?" मैंने अगला सवाल पूछा
"हां साब, पर हमारे पास और कपड़े नहीं हैं। " लड़की ने बड़े ही भोलेपन से उत्तर दिया।
मैं कुछ देर यूंही खड़ा उनकी तरफ देखता रहा, फिर अपने हाथ वाले पैकेट को देखा, उसे खोल कर उसमें से शाल निकाल कर उससे उनको ढक दिया।
दोनों ने खिंच कर शाल लपेट लिया, उनकी टाँगे सिमट गईं और चेहरे पर मुस्कराहट आ गई।
उनकी उस मुस्कराहट ने मेरे मन की उस दिन भर की उदासी को खत्म कर दिया। वह दोनों शाल ओढ़ने के बाद मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मन ही मन शुक्रिया अदा कर रहे हों।
मैं उनकी उस मुस्कान को दिल में छुपाये अपनी बाइक की तरफ मुड़ा और वापस अपने घर की तरफ चल दिया। मैं अपने आप को बड़ा ही हल्का सा महसूस कर रहा था।
मुझे पहली बार महसूस हुआ कि किसी ज़रूरतमंद की ज़रूरत को पूरा कर के और उनके चेहरे पर मुस्कराहट ला कर मन को कितना सुकून, कितनी शांति मिलती है ! दोनों की उस मुस्कराहट ने मेरे दिन भर की उस उदासी व बोझिलपन को खत्म कर दिया था। मैं भी मुस्कुरा रहा था।
इन्ही सब में जब मैं घर पहुंचा तो पत्नी को दरवाज़े पर इंतज़ार में खड़ी पाया। मुझे देखते ही तुरंत बोली "कहाँ चले गए थे ? मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ ?"
मैं कुछ भी नहीं बोला सिर्फ मुस्कुराता रहा और ख़ुशी में अपनी पत्नी को अपनी बाहों में उठा लिया।
Romy Kapoor (Kapildev)
Friday, October 24, 2014
बदलाव ज़रूरी है
पृथ्वी पर औरत, जी हां औरत भगवान की एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है और इस बात से कोई भी व्यक्ति इनकार नहीं कर सकता। चाहे वह माँ हो, बहन, पत्नी या प्रेमिका के रूप में हो, एक औरत सभी रूप में पुरुष के जीवन में एक बहुत ही मत्वपूर्ण किरदार अदा करती है। पुरुष अपने आप को बहुत ही भाग्यशाली महसूस करता है, अगर उसके जीवन में एक बहुत ही अच्छी और समझदार औरत है तो, चाहे वह फिर किसी भी रूप में हो। ऐसे पुरुष जीवन में कुछ भी पा सकते हैं। उस आदमी को अपना जीवन खुशनुमा, घर स्वर्ग से भी सुन्दर लगने लगता है, जहाँ रहना उसे अपने आप में एक सुखद अनुभूति का आभास कराता है।
ऐसा कहा जाता है कि जोड़ियां स्वर्ग से ही बन कर आती हैं, लेकिन स्वर्ग किसने देखा है ? मगर, अगर आपके जीवन में एक अच्छी सी लाइफ पार्टनर आ जाये तो, धरती पर ही स्वर्ग नज़र आने लगता है, घर भी किसी स्वर्ग से कम नहीं लगता।
लेकिन, दूसरी तरफ अगर कोई नासमझ और बुरी औरत अगर आपके जीवन में आजाये तो ? ऐसी औरत आपकी ज़िन्दगी को नरक बना सकती है, आपके जीवन को तहस नहस कर सकती है और पुरुष के घर को ऐसा स्थान, जहाँ वह जाना भी पसंद न करें।
मैं समझता हूँ दुनिया में दो प्रकार की औरतें होती हैं , एक बिल्डर और दूसरी डिस्ट्रोयर ।
पहले प्रकार की औरत,यानि कि बिल्डर,पुरुष की ज़िन्दगी को जीने लायक बना देती है। वह एक सेतु का काम करती हैं, सम्बन्धो को बनाये रखने के लिए और नए संबंधों को जोड़ने के लिए। अगर आप अपने आपको मेन्टली फ्री महसूस करते हैं, क्यूंकि आप यह जानते हैं कि आपके घर का और आपके बच्चों का ध्यान रखने वाली एक सुशील औरत आपके घर में है, तो आप बेहतर तरीके से अपने काम में ध्यान दे पाते हैं , आपकी खुद की कार्य क्षमता बढ़ जाती है, आपकी सृजनमकता बढ़ने से आप के कार्य में आप बेहतर परिणाम दे पाएंगे, उसका असर आपकी आय पर भी पड़ता है। यानि आपकी आय में भी वृद्धि होती है। तभी तो कहते हैं कि "हर कामयाब इंसान के पीछे एक औरत का हाथ होता है।"
लेकिन अगर एक ख़राब औरत, मेरे कहने का मतलब है कि दुसरे प्रकार की औरत यानि डिस्ट्रॉयर, अगर आपकी ज़िंदगी में आजाती है तब ? स्वाभाविक रूप से जो उसकी क्वालिटी है, इस प्रकार की औरतें अपना काम बखूबी पूरी ईमानदारी से करती हैं,और आपकी ज़िन्दगी को तदहस नहस कर के रख देती हैं। इस प्रकार की औरतों को न तो अपने बच्चों की नाही अपने पति की और ना ही किसी की भी ख़ुशी यां दुःख से कोई फर्क पड़ता है और तो और इन्हें अपनी ख़ुशी की भी चिंता नहीं होती, क्यूंकि इनको ख़ुशी ही दूसरों को दुःख पहुंचा कर, घर में झगड़े कर के व रिश्तों में दरारें डाल कर, मिलती है। यह रिश्तों को खत्म कर देती हैं।
घर के झगड़ों की वजह से आदमी की कार्य क्षमता पर असर पड़ता है, जिसका सीधा असर आदमी की आय पर पड़ता है। इसलिए अगर दुसरे तरीके से कहा जाए तो "एक असफल आदमी के पीछे भी एक औरत का ही हाथ होता है।"
एक बुरी शादीशुदा ज़िन्दगी की वजह से व्यक्ति जीवन की खुशियां, जीवन की संतुष्टि, व खुद के मान को प्राप्त नहीं कर पाता।
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के २०१३ के डेटा के अनुसार पुरुषों की आत्महत्या में मार्जिनल बढ़ौतरी हुई है, करीब एक १% की (67.2% - 66.2%, २०१२ में ) जबकि औरतों की आत्महत्या के आंकड़ों में करीब १% की कमी आई है (32.8% - 33.8% २०१२ में). पारिवारिक मसलों की वजह से करीब २१०९७ पुरुषों ने आत्महत्या की, जबकि करीब ११,२२९ औरतों ने आत्महत्या की। पुरुषों में आत्महत्या का एक बहुत बड़ा कारन पारिवारिक मसले हैं। यह आंकड़े काफी बड़े हैं।
भारत में मेन्ज़ राइट्स मूवमेंट से सम्बंधित कई संस्थाएं पुरुषों के अधिकारों के लिए कार्यरत हैं। उनकी मांग है कि कानून किसी विशेष लिंग के समर्थक नहीं होने चाहिए और कानून निष्पक्ष होने चाहिए व जो कानून पुरुष विरोधी हैं वह रद्द होने चाहिए।
इंडियन सोशल अवेर्नेस एंड एक्टिविज्म फोरम ( INSAAF) और कॉन्फिडर रिसर्च ने एक बिल ड्राफ्ट किया है जो कि पुरुषों को, लड़कों को उनकी पत्नी,गर्लफ्रेंड व उनके परिवार से, पारिवारिक झगड़ों से बचाव के लिए है।
इस विधेयक का नाम है "सेविंग मैन फ़्रोम इंटिमेट टेरर" ( SMITA ) व ग्रुप की कोशिश है कि इसे संसद में बहस के लिए पेश किया जाए।
मेरा खुद का यह मानना है कि कोई भी क़ानून कभी भी किसी एक लिंग तरफ़ी नहीं होना चाहिए, इससे इसके दुरूपयोग की संभावनाएं काफी बढ़ जाती हैं। उम्मीद है कि नई सरकार इस ओर ज़रूर ध्यान देगी व कानून में ज़रूरी बदलाव करेगी।
चाहे पुरुष हो यां स्त्री,किन्ही भी मुश्किलों में अपनी ज़िन्दगी को खत्म कर देना यां कहिये कि आत्महत्या करना, समस्या का हल नहीं है, बल्कि किसी भी तरह के हालात में और ज़्यादा मज़बूती से समस्याओं से जूझना, लड़ना और विजय प्राप्त करना ही ज़िन्दगी है, उससे आप औरों के लिए एक मिसाल पैदा करोगे वार्ना मौत के बाद भी बुज़दिली का टैग आपके नाम के साथ जुड़ा रहेगा। सोच में बदलाव ज़रूरी है, फ़ैसला आप का है, लेकिन इतना याद रखियेगा :
"ज़िन्दगी ज़िंदा दिली का नाम है,
मुर्दा दिल क्या खाक जिया करते हैं"
Romy Kapoor (Kapildev)
Thursday, September 25, 2014
पानी रे पानी
तपतपाती और झुलसा देनेवाली गर्मी के बाद जब बारिश की फुहारें ज़मीन पर गिरती हैं तो उस तपती हुई ज़मीन को कितना सुकून, कितनी राहत मिलती होगी, यह बिलकुल वैसा होता होगा जैसे गर्मी से परेशान हो कर, घर आकर ठन्डे पानी से नहाना। उस नहाने के बाद कितनी ताज़गी मिलती है, और दिन भर की थकान मिनटों में दूर हो जाती है। मैं समझता हूँ कि धरती को भी कुछ वैसा ही महसूस होता होगा उस बारिश की फुहारों के बाद, तभी तो धरती भी अपनी थकन मिटाते हुए फिर अपने काम में लग जाती है। नए नए पौधों को जनम देना, चारों तरफ हरियाली की चादर फैलाना, कुछ मुरझाये और कुछ सूखे पड़े पेड़ पौधों में नयी जान फूंकना। यही जीवन है और कुदरत की बनायी हुई इस साइकिल का पहिंया यूँ ही चलता रहता है और इसी लिए धरती पर रहने वाला हर जीवित प्राणी ठीक से सांस ले पाता है।
बारिश कुछ के लिए ख़ुशी का पैगाम है, आनंद का एक अवसर है , तो कईं लोगों के लिए आफ़त और कईं मुश्किलों का आगाज़।
आज हमारे शहर में भी जम कर बारिश हुई थी, बारिश की वजह से स्कूल, कॉलेजों में छट्टी दे दी गयी थी और लोग अपने ऑफिस भी नहीं जा पाये थे, बच्चे तो बड़े ही खुश थे।
लगातार हो रही बारिश के थमने के बाद जब मैंने बाहर निकल कर देखा तो चारों तरफ पानी ही पानी नज़र आ रहा था, लोग उस नज़ारे का आनंद लेने के लिए अपने अपने घरों से बाहर निकलने लगे थे, मौसम बड़ा ही सुहावना था, हवा काफी ठंडी हो गयी थी, मैंने भी सोचा क्यूंना इस सुहावने मौसम का मज़ा लेते हुए आस पास इलाकों का दौरा किया जाए ! यही सोच कर मैंने अपनी बाइक निकाली और चल दिया एक न्यूज़ रिपोर्टर की तरह।
बाहर मेन सड़क तक पहुंचना भी बहुत ही मुश्कि था। मैं किसी तरह अपनी बाइक को निकाल कर मेन रोड तक पहुंचा। जहां तक मेरी नज़र जाती थी वहां तक बस पानी ही पानी दिख रहा था। लोग जो सुबह से मूसलाधार बारिश की वजह से अपने अपने घरों में बैठे थे, वह सभी बाहर सड़क पर आ गए थे और सुहाने मौसम का मज़ा ले रहेथे, मित्र अपने झुण्ड में खड़े थे और ठठ्ठा मस्ती कर रहे थे, काफी लोग मेरी तरह अपना अपना वाहन लेकर घूमने निकल पड़े थे। मैं कुछ देर खड़ा होकर वह सारा नज़ारा देखता रहा, कुल मिला कर सभी मज़ा ले रहे थे खूबसूरत मौसम का और पानी का।
मैं थोड़ा आगे बढ़ा, मैंने देखा पकोड़ों की एक दूकान पर काफी भीड़ लगी हुई थी, दुकानदार गरमा गरम पकोड़े निकालता जा रहा था और वह पकोड़े हाथों हाथ बिकते जा रहे थे, लगा सभी इस बारिश के मौसम में गरम गरम पकोड़ों का मज़ा लेना चाह रहे थे। दुकानदार के पास नज़रें ऊपर उठा कर देखने तक का समय नहीं था।
शाम ढलने लगी थी, मैं यूंही आगे बढ़ता रहा, जहाँ देखो वहां पानी ही पानी नज़ा आता था, बढ़ते बढ़ते मैं एक जगह पहुंचा जहां झुग्गी झोपड़ियां थीं, मैंने देखा वहां का नज़ारा बिलकुल अलग था। पानी में उनकी झोपड़ियां डूबी हुईं थीं,बर्तन पानी में तैर रहे थे, मैं अंदाज़ा लगा सकता था कि झोंपड़ी के अंदर का सारा सामान पानी में भीग गया होगा।वह सभी अपने बच्चों के साथ पास ही के एक मॉल में शर्णार्थी हो कर बैठे थे। बच्चों के कपड़े गीले थे और बच्चों के ही क्या सभी के कपड़े गीले थे।शायद उन्हें इसी तरह गीले कपड़ों में ही रहना पड़े, पता नहीं कबतक ? शाम का समय था और मैं समझ सकता हूँ कि उनके सामने सबसे बड़ा सवाल इस समय रात के खाने का था। अगर किसीने उन्हें खाना नहीं दिया तो शायद उनके बच्चों को और उन्हें भूखा ही रहना पड़ेगा। रात को उन्हें यूँ ही इस मॉल में खुल्ले में ही सोना होगा, और अगर रात में फिर बारिश हो गई तो ?
इतनी बारिश ने उनके लिए बाढ़ की सी स्थिति पैदा करदी थी। मेरे सामने दो मंज़र थे एक वो जहां इस मौसम का लुत्फ़ उठाने की ख़ुशी तो दूसरी तरफ इसी मौसम ने कुछ लोगों की मुश्किलें बढ़ा दी थीं। कहीं पकोड़ों की दूकान पर कतार तो कहीं खाने को तरसती आँखें ! वाकई यह तो कहना ही पड़ेगा "पानी रे पानी तेरे आने से कहीं पर ख़ुशी तो कहीं परेशानी ?"
उन लोगों को देख कर मैं यह सोचने पर मजबूर हो गया सचमुच "पैसा ज़िन्दगी में सब कुछ तो नहीं, मगर पैसे के बिना भी ज़िन्दग़ी कुछ भी नहीं।"
बारिश ने कहीं खुशियो का सा माहौल बना दिया था तो कहीं ज़िन्दगी को मुश्किल।
मैं डबडबाई आंखों से खड़ा सोचता रहा
इनकी ज़िन्दगी आसान कब होगी ?
कौन करेगा इनकी ज़िन्दगी को आसान ?
Romy Kapoor (Kapildev)
Sunday, August 31, 2014
उड़ान- A question
सुबह का समय था मैं सोफे पर बैठा अखबार के पन्ने पलट रहा था, तभी मेरे मोबाइल की घंटी बजी, मैंने देखा वह मेरे छोटे भाई का फ़ोन था।
"हेलो" मैंने फोन उठाते हुए कहा।
"एक खुश खबर है, रोहित को कनाडा का वीज़ा मिल गया है और वह छब्बीस तारीख को आगे की पढाई के लिए कनाडा जा रहा है।" सामने से सूरज ने कहा।
सुनते ही कुछ पल के लिए मैं बिलकुल चुप ही हो गया, समझ नहीं पा रहा था कि इस समाचार पर कैसे रियेक्ट करूँ ? लेकिन चूँकि सूरज ने मुझे यह समाचार बड़ी ही गर्मजोशी और उत्साह से सुनाया था इस लिए मेरा भी फ़र्ज़ बनता था कि मैं भी उसका उत्तर उसी गर्म जोशी और उत्साह से देता।
मैंने कहा "अरे, बहुत बहुत बधाई हो, मगर एकदम से अचानक यह सब कैसे हो गया ? तुमने पहले तो कभी बात नहीं की थी।"
"हाँ लकिन जबसे स्पर्श (मेरी छोटी बहन का लड़का ) कनाडा गया है तभी से उसकी भी यह इच्छा थी कि उसे भी आगे की पढाई के लिए कनाडा जाना है। इसके लिए वह लम्बे समय से कोशिश भी कर रहा था और फिर मैंने भी सोचा, वहां चला जाएगा तो उसका भविष्य बन जाएगा। बस अब जब सब कुछ तय हो गया तब मैं सभी को बता रहा हूँ। "
"हाँ यह तो सही है, मैं रोहित को बधाई देना चाहता हूँ, मेरी बात करवाओ रोहित से। "
"वह तो तभी से बहुत ही खुश है, अभी कहीं बाहर गया है, आने पर मैं बात करवा दूंगा।" सूरज ने कहा।
"चलो ठीक है, मैं शाम को खुद ही आऊंगा उसे बधाई देने।"
बात खत्म होने के बाद मैं काफी देर सोचता रहा। सूरज ने मुझे कहा था कि "उसकी इच्छा थी कनाडा जा कर आगे की पढाई करने की, और फिर मैंने भी सोचा, वहां चला जाएगा तो उसका भविष्य बन जाएगा।" मैं सोचने लगा "माँ बा अपनी औलाद के लिए क्या कुछ करने को और सहने को तैयार हो जाते हैं। यहाँ तक कि अपने जिगर के टुकड़े को अपने से इतनी दूर भेजने को भी तैयार हो जाते हैं। एक अनजान देश, एक अनजान शहर में जहाँ उसका अपना कोई भी नहीं। क्यों ? अपने बच्चे का सुन्दर भविष्य बनाने के लिए।
मेरा भाई व्यवसाय करता है और भाभी एक स्कूल में शिक्षिका हैं। उनकी एक बेटी भी है। मैं समझ सकता हूँ कि अपने इकलौते बेटे को अपने से इतनी दूर भेजने का फैंसला इतना आसान नहीं रहा होगा उनके लिए और उनके लिए ही क्यों किसी भी माँ बाप के लिए यह फैंसला बड़ा ही मुश्किल हो सकता है। लकिन अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए वह सब कुछ सहने को तैयार हो जाते हैं। बेटे को बाहर से आने में थोड़ी सी भी अगर देरी हो जाए तो चिंता की लकीरें खिंच जाती हैं माँ बाप के माथे पर , मगर अब कौन देखेगा, वह कब लौटा ? अगर बच्चे ने खाना ठीक से ना खाया हो तो माता पिता को चिंता हो जाती है, लेकिन अब कौन देखेगा उसने खाना भी ठीक से खाया यां नहीं ?
यह हमारे परिवार में से दूसरा लड़का था जो कनाडा जा रहा था। इससे पहले मेरी छोटी बहन नीता ने भी अपने इकलौते लड़के स्पर्श को अपने से दूर कनाडा भेजा था, एक साल हो गया है उसको गए हुए। वह भी बहुत ही खुश थी जब उसने हम सबको यह खबर सुनाई थी। मगर मैंने देखे थे उसकी आँखों के वह आंसू, जो उसकी आँखों से बह रहे थे, जब स्पर्श उसे गले लग कर सिक्योरिटी चेकिंग के लिए अंदर चला गया था। ये आंसू इस लिए थे क्यूंकि अब वह नहीं जानती थी कि अपने बेटे को कब देख पाएगी ? एक बहन नहीं जानती थी कि अब वह कब खुद अपने भाई की कलाई पर राखी बाँध पाएगी और एक पिता नहीं जानता था कि अब कब उसका बेटा उसके बराबर अाकर खड़ा होगा ?
उस समय उनके दिल का दर्द मैं भली भांति महसूस कर रहा था। एक माँ की इच्छा थी कि उसका बेटा फिर एकबार सिक्योरिटी चेकिंग से बाहर आ जाए और वह उसको फिर एक बार जी भर कर देख ले। बहन के आंसू रुक नहीं रहे थे।
तब मैं उन्हें देख कर यही सोचता रहा था कि यह कितने ही मुश्किल क्षण हैं एक माँ बाप और एक बहन के लिए, उनकी आँखों के आगे से उनका बेटा, भाई ओझल हो गया, पता नहीं कब तक के लिए ? हालाँकि यह निर्णय उनका खुद का था और वह भी क्यों ? अपने बच्चे के सुन्दर भविष्य के लिए उन्होंने अपने दिल को पत्थर कर लिया था। लेकिन पत्थर कभी दिल नहीं हो सकता और दिल कभी पथ्थर नहीं हो सकता , बरस ही पड़ता है।
आज फिर एक माँ बाप ने वही निर्णय लिया था, अपने बेटे के सुनहरे भविष्य के लिए। मैं जानता था आज खुश दिखने वाले माँ, बाप, बहन एक समय पर कमज़ोर पड़ जाएंंगे।
मैं जब शाम को रोहित से जाकर मिला तो वह बहुत ही खुश नज़र आ रहा था।
"बस दस दिन बाकी हैं कनाडा जाने में।" उसकी आँखों से और उसके बोलने से उसकी ख़ुशी साफ़ झलक रही थी।
मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए उसे आशीर्वाद दिया मगर दिल भारी था आँखे नाम थीं।
मैं जानता था यह दस दिन दस घंटों की तरह गुज़र जाएंगे, क्यूंकि उसको और उसके माता पिता को अभी बहुत सी तैयारियां करनी थीं।
सात दिन यूँही पंख लगाकर उड़ गए। अब केवल तीन दिन बाकी बचे थे, मेरी एक बहन है उसका लड़का सचिन कॉलेज से छुट्टियां लेकर आ गया था, वह रोहित के साथ तीन दिन गुज़ारना चाहता था। मैं जानता था वह भाई तो थे ही मगर उससे भी ज़्यादा अच्छे दोस्त थे।
जाने के एक दिन पहले तक रोहित अपने कॉलेज के दोस्तों से मिलता रहा। अब उसके चेहरे पर सबसे बिछड़ने का दर्द साफ़ झलकने लगा था, मैं यह जानता हूँ कि कोई भी बच्चा अपने परिवार से अलग होकर नहीं रहना चाहता, सचिन भी मायूस दिखने लगा था।
कहीं ख़ुशी थी कि उसका एक भाई आ रहा है तो कहीं बिछड़ने का दर्द भी था।
आखिर वह दिन भी आ ही गया जिसकी तैयारियां न जाने कितने ही दिनों से चल रहीं थीं।आज रोहित घर से बिदा होने वाला था, घर से निकलने से पहले एक बहन शुभ शगुन के तौर पर अपने भाई को भीगी आँखों से दही और चीनी खिला रही थी। एक माँ की आँखों से रह रह कर आंसू छलक जाते थे और एक पिता सभी से छिप छिप कर रो रहा था। रोहित मुंह से कुछ बोल तो नहीं रहा था मगर उसकी आँखे बहुत कुछ बयां कर रहीं थीं, लगा जैसे कहना चाह रहा हो :
"मैं कभी बतलाता नहीं, पर अँधेरे से डरता हूँ मैं माँ,
यूँ तो मैं दिखलाता नहीं, तेरी परवाह करता हूँ मैं माँ,
तुझे सब है पता मेरी मां,
भीड़ में यूँ ना छोड़ो मुझे, लौट के घर भी आ ना पाऊं माँ
भेज ना इतना दूर मुझको तू, याद भी तुझको आना पाऊं माँ,
क्या इतना बुरा हूँ मैं माँ"
एयरपोर्ट पहुंच कर फिर वही क्षण मैं देख रहा था, सभी रोहित के साथ एक फोटो खिचवाना चाहते थे, सभी के मोबाइल फोन के कैमरा ओन थे और उस क्षण को कैद कर लेना चाहते थे। रोहित की फ्लाइट की घोषणा हो चुकी थी और अब उसे सिक्योरिटी चेकिंग के लिए अंदर जाना था, फिर एक बेटा, एक भाई , एक भतीजा, एक भांजा और एक दोस्त आँखों से ओझल होने वाला था, पता नहीं कितने महीनों के लिए ? सभी की आँखे नम थीं, सभी उसके चहरे को अपनी आँखों में बसा लेना चाहते थे, सचिन उदास था क्यूंकि एक और भाई उससे बिछड़ रहा था।
रोहित के चलने से पहले स्पर्श की माँ ने कहा कहा "मेरी तरफ से स्पर्श को ज़ोर से गले लगाना " एक माँ का दर्द और अपने बेटे को गले लगाने की लालसा साफ़ झलक रही थी। बहन ने कहा "स्पर्श को मेरी तरफ से चुटकी भरना " एक बहन का प्यार और अपने भाई के प्रति शरारत साफ़ थी उसमें और हो भी क्यों ना स्पर्श से बिछड़े उन्हें एक वर्ष से भी ज़्यादा का समय हो गया था।
कुछ ही देर में रोहित अंदर चला गया, जाते जाते उसने आगे पहुँच कर पीछे मुड़ते हुए सभी को हाथ हिला कर बाय कहा,
लगा जैसे वह कह रहा था
"कल भी सूरज निकलेगा,
कल भी पंछी गाएंगे,
सब तुमको नज़र आएंगे
पर हम ना नज़र आएंगे,
आँखों में बसा लेना हमको,
सिने में छुपा लेना हमको
अब हम तो हुए परदेसी "
और उसका चेहरा पालक झपकते ही आँखों से ओझल हो गया।
रोहित के अंदर चले जाने के बाद अब इच्छा थी उस प्लेन की एक झलक पाने की, उसको उड़ता हुआ देखने की, और मैं समझता हूँ उससे भी ज़्यादा फिर एक बार उसे देखने की, क्यूंकि दिल तो अभी भी उसे देखना चाहता था।
मैं सोचता हूँ यह दिल भी कितना चंचल होता है, जिस माँ बाप ने खुद ही अपने बेटे को इतनी दूर भेजने का फैंसला लिया, उनका दिल तो आज भी चाहता है कि वह उनकी नज़रों के सामने रहे, यह आँखें हमेशां उसे देखती रहें।
मेरे मन में कई सवाल उठते हैं :
"तो फिर क्यों एक माँ बाप को इतना कड़ा फैंसला लेना पड़ता है ?"
"क्यों अपनी आँख के तारे को अपनी ही आँखों से दूर भेजना पड़ता है ?"
"कब तक हमारे बच्चे हायर स्टडीज़ के लिए विदेशों में जाते रहेंगे ?" "कब तक माँ बाप अपने बच्चों का उज्जवल भविष्य बनाने के लिए उसे विदेश भेजते रहेंगे ?"
"क्यों हमारे देश में मेहनत के अनुरूप पैसा नहीं दिया जाता ?"
"कब तक पैसा कमाने की लालसा में बच्चे अपने माँ बाप से दूर होते रहेंगे ?"
"कब तक इस देश का भविष्य कहे जाने वाले यह नवयुवक खुद का भविष्य बनाने के लिए विदेशों में जाते रहेंगे ?"
"क्या इसके लिए ज़िम्मेदार हमारा लचर सिस्टम है ?"
"कब तक हमारे हुक्मरान इस बात को समझेंगे ?"
सवाल कई हैं मगर मैं जानता हूँ इसका हल किसी के पास नहीं और जबतक हमारा देश इन बातों का हल नहीं ढूंढ लेता तबतक माँ बाप अपने बच्चे के सुन्दर भविष्य के लिए उन्हें इसी तरह अपने से दूर विदेशों में भेजते रहेंगे।
प्लेन आँखों के आगे से गुज़रा और अपने बेटे की एक झलक को तरसती आँखें निराश हो गई। कुछ पलों में प्लेन हवा में उड़ने लगा,लेकिन मैं समझता हूँ यह उड़ान थी न जाने कितने माँ बाप की उम्मीदों की, यह उड़ान थी ना जाने कितनी बहनों की दुआओं की और यह उड़ान थी ना जाने कितने बच्चों के सपनों की।
Romy Kapoor (Kapildev)
Friday, August 29, 2014
रात के हमसफ़र - A Short Story
"मामाजी जल्दी करना साढ़े सात बज चुके हैं और आठ बजे की बस है, क्यों कि समय कम है इसलिए थोड़ा तेज़ी से चलिएगा।" मैंने मामाजी से कहा तो वे मुस्कुरा कर बोले "अरे बेटा, घबराओ नहीं, तुम्हारी बस तुम्हें लिए बिना नहीं जायेगी " और उन्होंने अपनी गाडी की गति और थोड़ी बढ़ा दी।
आज मैं अहमदाबाद से मुंबई जा रही थी। मुझे मुंबई में एक नयी कंपनी में नौकरी मिली थी, कल मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी। वैसे मैं दिल्ली में रहती हूँ, लेकिन इण्टरव्यू के बाद जब मुझे कॉल लैटर मिला तो समय इतना कम था कि मुझे दिल्ली से मुंबई की सीधी रिजर्वेशन नहीं मिली, तो मैंने सोचा क्यूंना वाया अहमदाबाद ही चली जाऊं, अहमदाबाद में मामाजी भी रहतें हैं एक रात उनके साथ रह लूंगी और फिर अगले दिन शाम को मुंबई के लिए रवाना हो जाऊँगी, इस बहाने सभीसे मिलना भी हो जाएगा। सो मैं कल शाम की गाडी से अहमदाबाद पहुंची थी,पूरी रात सब के साथ बातें करने में गुज़र गई, सुबह वे लोग मुझे अहमदाबाद की सैर करवाने ले गए। गांधी रोड के तीन दरवाज़ा ने मुझे दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला दी, सी जी रोड,रिवर फ्रंट और फिर दोपहर को ऑनेस्ट रेस्टोरेंट की मशहूर पाँवभाजी और दोपहर बाद लॉ गार्डन से मैंने अपने लिए कुछ कपडे ख़रीदे। पूरा दिन बस यूँही गुज़र गया। मैं बहुत ही खुश थी अपने अहमदाबाद होकर मुंबई जाने के फैंसले से। ऐसा नहीं है कि में पहली बार अहमदाबाद आई थी, मगर काफी समय बाद आई थी इसलिए मुझे यह शहर काफी बदला बदला सा लग रहा था।
"लो बेटा, पहुँच गए।" मामाजी ने कहा तो मैं दिन की यादों में से वापस लौटी। मैने गाड़ी से उतर कर बस के बारे में पूछा तो पता चला कि बस लग चुकी थी और यात्री अपनी अपनी जगह ले चुके थे, बस कुछ ही देर में बस छूटने वाली थी। मैंने मामाजी की गाड़ी से अपना बैग व अटैची उतारे, अटैची को बस की डिक्की में रखवाया और बैग को अपने पास ही रखा, फिर मैं मामाजी के पास गई उनसे गले मिली और कहा "अच्छा मामाजी चलती हूँ, यहां आकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा, अब तो मैं मुंबई आ गई हूँ तो आती जाती रहूंगी। "
"ठीक है बेटा, अपना ध्यान रखना और पहुँचते ही फ़ोन ज़रूर करदेना, हम भी समय निकाल कर आएंगे कभी तुम्हारे पास" उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखा और और बोले "खुश रहो बेटा" कहते हुए उनकी आँखे नाम हो गईं थीं।
मैं बस में आकर अपनी सीट पर बैठ गई। ज़्यादातर मैं खिड़की वाली सीट ही पसंद करती हूँ, क्यूंकि चाहे ट्रैन हो यां बस मुझे खिड़की से बाहर के नज़ारे देखना अच्छा लगता है।
मेरे साथ वाली सीट अभी खली थी, उसपर कोई भी नहीं आया था। मैं दिल ही दिल में प्रार्थना कर रही थी कि कोई अच्छा सा पैसेंजर आ जाये,क्यूंकि अगर हमसफ़र अच्छा हो तो सफर अच्छा गुज़र जाता है । बस चलने वाली थी मगर अभीभी कोई आया नहीं था, अब मैं सोच रही थी कि काश यह सीट खाली ही जाए और मैं रात भर आराम से सोती हुई जाऊं, सीटिंग के खर्चे में स्लीपर का मज़ा !
बस धीरे धीरे चलने लगी थी, एक चौराहा पार करके आगे बढ़ चली थी, आहिस्ता आहिस्ता बस ने अहमदाबाद शहर पार कर लिया था और अब वह अहमदाबाद - वडोदरा एक्सप्रेस हाईवे की तरफ बढ़ रही थी तभी छब्बीस सत्ताईस वर्षीया एक लड़का, बाल बिखरे हुए, क़द करीब पांच फ़ीट दस इंच के आस पास, रंग गोरा, और दिखने में भी स्मार्ट ही था,मेरी सीट की तरफ ही आ रहा था वह जब तक मेरी सीट तक पहुंचा तबतक मैंने उसका पूरा हुलिया चेक कर लिया था और अंदर से मैं थोड़ी खुश भी थी कि चलो पडोसी तो अच्छा मिला। मेरी सीट के पास आकर उसने हाथ वाला बैग ऊपर रखा, और फिर मेरी तरफ देखता हुआ बोला "ये मेरी सीट है। "
"हाँ तो बैठिये मैंने कब रोका है ?" मैं ऐसे रियेक्ट करने की कोशिश कर रही थी जैसे मैं बहुत ही सख्त किस्म की लड़की हूँ, क्यूंकि मैं अकेली सफ़र कर रही थी, इस लिए मुझे चौकन्नी रहना ज़रूरी था।
"थैंक गॉड" सीट पर बैठते हुए वह धीरे से बोला।
"जी ?"
"मैंने कहा भगवान तेरा लाख लाख शुक्रिया " वह बोला।
मैंने ऐसे जताया जैसे मैंने उसकी बात सुनी ही ना हो, लेकिन उसकी
बात का मतलब मैं समझ गई थी और मन ही मन मुस्कुरा रही थी, यह सोच कर कि शायद उसे भी अपना हमसफ़र अच्छा लगा है।
"क्यूंकि मुझे बस जो मिल गई" वह फिर बोला तो मैंने कुछ इस तरह से मुंह बनाया जैसे उसने कोई कड़वी चीज़ मेरे मुंह में डालदी हो।
"अगर आपको ऐतराज़ न हो तो मैं आपका यह बैग ऊपर रख दूँ , शायद आपको पाँव रखने में दिक्कत महसूस हो रही है, रास्ता लंबा है इस तरह बैठना मुश्किल होगा।" कहते ही उसने मेरे पाँव के नीचे रखा हुआ बैग खींच कर ऊपर रख दिया और इससे पहले कि मैं कुछ बोलती, उसने कहा "देखिये अब आप कम्फ़र्टेबल महसूस कर रही हैं ना।"
मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगी, लेकिन मैं दिल में सोच रही थी "काफी स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा है "
बस अहमदाबाद-वडोदरा हाईवे पर दौड़ रही थी।
"क्या आप मुंबई जा रही हैं ?" उसने पूछा
"जी हाँ " मैंने बगैर उसकी तरफ देखे ही उत्तर दिया।
"क्या आप अहमदाबाद में ही रहती हैं ?" उसने अगला सवाल दागा।
"नहीं, दिल्ली से आई हूँ, यहां मेरे मामाजी रहते हैं, उनसे मिलने आई थी।"
"मुंबई में भी किसीसे मिलने जा रही हैं ?" उसने अगला सवाल पूछा।
"जी नहीं वहां जॉब करती हूँ। "
"क्या आपने यहां के खमण और ढोकला खाए ?" उसने फिर पूछा।
"नहीं"
"आपको वो तो ज़रूर खाना चाहिए था, किसीने आपसे कहा नहीं ?"
"शायद" उत्तर देने के बाद मैं खुद झेंप गई, सोचने लगी "मैं उसके हर सवाल का उत्तर क्यों दे रही हूँ ?"
"मैं अहमदाबाद में ही रहता हूँ " मेरे बगैर पूछे ही उसने कहा।
"अब हम अहमदाबाद-वडोदरा एक्स्प्रेस हाईवे पर हैं, हालांकि बीचमें नाडियाड, आनंद और वडोदरा आएगा लेकिन यह बस वडोदरा बाय पास से सीधी भरुच की तरफ निकल जायेगी। "
जैसे ही उसको पता चला, मैं दिल्ली से आई हूँ, वह एक गाइड की भूमिका में आ चूका था। मैं चुप थी।
तभी वह उठा बैग में से एक पैकेट निकालते हुए, मेरी तरफ़ बढ़ाया और पूछा "लीजिये कुछ खायेंगी आप ?"
"जी नहीं शुक्रिया"
वह करीब दस मिनट तक खाता रहा। मुझे उसके खाने के तरीके से बड़ी कोफ़्त हो रही थी, मगर वह खाता रहा, मैं कुछ कहना चाहते हुए भी चुप रही।
"दरअसल चलते समय कुछ खाया नहीं था " खाने के बाद वह बोला।
तभी वह बाहर देखता हुआ बोला "हम लोग नडियाद से गुज़र रहे हैं, यहां के पापड और मठिये काफी मशहूर हैं। "
मैं सोच रही थी "क्या लड़का है, इतना खाने के बाद भी इसे खाने की चीज़ें ही याद आ रहीं हैं !"
वह बीच बीच में खिड़की से बाहर देखने के बहाने मुझे देख लेता था, और जब भी बस किसी शहर से होती हुई गुज़रती तो तुरंत ही गाइड की भूमिका में आ जाता था। आनंद से जब बस गुज़र रही थी तो बोला "यह हम लोग आनंद बायपास से गुज़र रहे हैं, यहाँ की अमूल डेरी के बारे में तो आपने सुना ही होगा। इनके पिज़्ज़ा आजकल काफी मशहूर हो रहे हैं। लेकिन मुझे इनकी चॉकलेट बड़ी अच्छी लगती हैं, आई रियली लव चॉकलेट। "
एक बार तो मेरे दिल में आया उससे कहदूं कि मुझे गाइड की कोई ज़रूरत नहीं है, और नाही मुझे खाने का इतना शौक है, मगर मैं चुप रही।
बस जब वडोदरा से होकर गुज़र रही थी तो बोला "यहां का लीला चिवड़ा बहुत ही प्रसिद्द है, थोड़ा गिला होता है मगर खाने में बड़ा ही टेस्टी लगता है। "
मुझे उसकी बातों पर गुस्सा भी आ रहा था, और दिल ही दिल में सोचती भी रही "इसके पास खाने की चीज़ों के इलावा करने को और कोई बात ही नहीं है?"
वडोदरा क्रॉस करके बस भरुच हाईवे पर किसी रेस्तरां पर रुकी तो उसने उठते हुए मुझसे पूछा "आप कुछ खायेंगी ?"
"जी नहीं शुक्रिया " मैंने झल्लाते हुए उससे कहा।
"अच्छा तो चाय तो पियेंगी ही ?" मेरा उत्तर सुननेसे पहले ही वह आगे बढ़ गया।
सामने रेस्तरां से उसने पहले एक चाय ली और मुझे दे गया और फिर अपने लिए शायद एक वेफर का और शायद एक बिस्किट पैकेट और एक चाय खरीदी और वहीँ सामने खड़ा होकर खाने लगा। मैं चाय की चुस्कियां लेते हुए उसे देख रही थी, दिखने में बुरा नहीं लग रहा था, ब्लू जीन्स के ऊपर हलके नीले रंग की शर्ट पहन रखी थी,पांव में स्पोर्ट्स शूज पहन रखे थे, उसे देख कर लगता था ड्रेस सेंस अच्छा था उसमें। मैं यूँही खोई हुई उसे देख रही थी तभी उसने अचानक मेरी तरफ देखा तो झेंपते हुए मैंने अपनी नज़रें दूसरी तरफ फेर लीं। शायद उसने मेरी इस हरकत को भांप लिया था, इसीलिए वह मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था। मैं दिल ही दिल में शर्म महसूस कर रही थी "क्यों मैं उसे इस तरह देख रही थी, वह क्या सोचता होगा मेरे बारे में ?"
बस में वापस आकर बैठते हुए उसने पूछा "चाय कैसी लगी ? इस रेस्तरां की चाय बड़ी अच्छी होती है, मैं तो जब भी आता हूँ यहां की चाय ज़रूर पीता हूँ।" फिर कुछ रूककर बोला "अब भरुच आएगा, यहां के सिंग दाने बड़े ही मशहूर हैं "
"आप जब भी आते होंगे वहाँ के सिंग दाने भी ज़रूर लेजाते होंगे ?" मैंने आँखें निकालते हुए उससे पूछा।
"एग्ज़ॅक्ट्ली ! ये बड़े बड़े दाने, बिलकुल आप की आँखों के जैसे। "
"ए मिस्टर " मैंने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा। वह मुस्कुरा कर चुप हो गया, और मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। मगर मैं अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी, यह सोच कर कि उसने मेरी बड़ी बड़ी आँखों की तारीफ़ की थी। मुझे लगा शायद जबसे बस में आकर बैठा था तबसे पहली कोई काम की बात उसने की थी।
मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, आँखों के आगे से तेज़ी से गुज़रते नज़ारे मुझे अच्छे लग रहे थे बाहर से आ रही ठंडी हवा मेरे बालों को उड़ा रही थी जिस वजह से मैंने अपने सर को चुन्नी से ढक लिया, मैंने महसूस किया वह बाहर देखने के बहाने मुझे देख रहा था। उसके इस तरह देखने से मुझे शर्म सी महसूस हो रही थी, मैंने नज़रें घुमा कर जब उसकी तरफ देखा तो वह बोला "कितनी खूबसूरती है। "
"जी ?"
"मेरा मतलब कितनी खूबसूरती है,नज़रें ही नहीं हटतीं" वह तुरंत ही बाहर देखता हुआ बोला।
मैं उसके कहने का मतलब समझ रही थी इसलिए चुप रही, वह काफी देर तक इसी तरह देखता रहा। तभी बाहर की रौशनी देख कर वह बोला "शायद सूरत आ गया है, यहां की घारी बहुत ही मशहूर है, काफी घी में बनाई जाती है, इसलिए गरम करके खाने से बहुत अच्छी लगती है।" वह फिर घूम फिर कर वही खाने की बात पर आ चुका था, मैंने गुस्से से आँखें बंद करलीं और यह जताने की कोशिश करने लगी कि अब मुझे बड़ी नींद आ रही है।
"वैसे मैं आपसे यह पूछना तो भूल ही गया कि दिल्ली में भी तो खाने की कोई चीज़ प्रसिद्द होगी ?"
"हाँ है ना " मैंने तुरंत अपनी आँखें खोलते हुए कहा।
"क्या ?"
"सैंडल " मैं तपाक से बोली।
"तब तो आप रोज़ खाती होंगी ?" उसके इस उत्तर से मैं सकपका कर रह गई और गुस्से से फिर अपनी आँखें मूंद लीं।
करीब पंद्रह बीस मिनट बाद वह सो गया, सोते सोते उसका सर लुढक कर मेरे कंधे पर आ गया था और जनाब बड़े ही आराम से मेरे कंधे पर सर रख कर सो रहे थे, मुझे गुस्सा आ रहा था। मैंने पहले तो हाथ से उसका सर हटाना चाहा,मगर फिर कुछ सोच कर रुक गई और थोड़ा सा आगे की तरफ झुक गई तांकि खुद ही उसकी नींद खुल जाए, मगर मेरे आगे होते ही उसका सर लुढक कर मेरी पीठ पर आ गिरा। मैं परेशान थी, मैंने उसके सर को पीछे की तरफ धक्का मार कर दबाने की कोशिश की मग़र वह ढीठ सोता ही रहा, तंग आ कर मैंने उसे ज़ोर से झिंझोड़ा तो अपनी नींद से उठता हुआ बोला "सॉरी, आँख लग गई।" उसके बोलने के अंदाज़ से मुझे उसपर तरस आया, मगर मैं उसे ऐसे कैसे सोने दे सकती थी।
अब मुझे भी नींद आने लगी थी और नींद में मेरा भी सर पता नहीं कब लुढक कर उसके कंधे पर गिर जाता, जब अचानक मेरी नींद खुलती तो मैं झेंप कर सीधी हो जाती। नींद के इन्हीं झोंकों में पता ही नहीं चला कब मुंबई आ गया, जब शोर गुल से मेरी आँख खुली तो मैंने पाया कि उसका सर और मेरा सर मिले हुए थे, मैं तुरंत सीधी हो कर बैठ गई। वह भी उठ गया था, उसने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा "मुंबई आ गया, यहां के वड़ा पाँव ज़रूर खाइएगा बड़े ही टेस्टी होते हैं।"
मैं उसे गुस्से से देख रही थी और सोच रही थी "जाते जाते भी खाने की ही टिप दे रहा है। "
खैर, मुझे जल्दी थी, तैयार हो कर मुझे ऑफिस पहुंचना था, इसलिए बस से उतर कर मैं ऑटो पकड़ कर तुरंत ही निकल गई।
मैंने ऑफिस के रिसेप्शन पर पहुँच कर अपना लैटर दिखाया तो मुझे कुछ देर वहीँ इंतज़ारवही करने को कहा गया, मैं सोफे पर बैठी ही थी कि तभी सामने के मुख्या द्वार से वही रात वाला लड़का अंदर दाखिल हुआ।हमारी नज़रें मिलीं और उसे देखते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई "वड़ा पाँव ?" और मैं धप्प से वहीँ सोफे पर बैठ गई।
Romy Kapoor (Kapildev)
Wednesday, August 20, 2014
गुनहगार - A Short Story
"अरे अनु, अभी तक तैयार नहीं हुईं तुम ? देखो, साढ़ेनौ बज गए हैं और पौने दस बजे का शो है !" आकाश ने ज़ोर से आवाज़ लगाते हुए अनु से कहा तो अंदर से अनु की आवाज़ आई "आई, बस दो मिनट" .
आकाश और अनु की शादी की पांचवीं सालगिरह थी आज, इसी को सेलिब्रेट करने के लिए दोनों आज रात के शो में फिल्म देखने जा रहे थे। शादी को पांच साल हो गए थे मगर दोनों के यहाँ कोई संतान नहीं हुई थी। कितनी ही जगह मन्नते मान चुके थे, जहाँ कोई कहता चले जाते, जैसे कोई कहता उपाय करते, मगर कोई फायदा नहीं हुआ था।
अनु जब तैयार होने में काफ़ी देर लगा रही थी तो आकाश उठ कर दूसरे कमरे में गया और अनु को देख कर बोला "हम रात के शो में फिल्म देखने जा रहे हैं दिन के शो में नहीं जो इतनी सजधज रही हो, रात में तुम्हें कोई नहीं देखेगा। "
"कैसी बातें करते हो ? मैं क्या लोगों के लिए तैयार होती हूँ ?" अनु ने नाराज़गी जताते हुए कहा और साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए आकाश के पास आकर खड़ी होते हुए ऐसे देखने लगी जैसे आकश से कुछ पूछ रही हो।
"अरे बाबा बहुत ही सुन्दर लग रही हो, अब जल्दी चलो आधी फिल्म देखनी है क्या ?"
दोनों ही तेज़ी से बहार की और बढ़ गए, ताला अनु के हाथ में थमाते हुए आकाश ने कहा "तुम ठीक से लॉक लगाओ तबतक मैं गाडी निकालता हूँ" कहते हुए आकाश आगे बढ़ गया।
"चलो अनु जल्दी करो " गाड़ी को अनु के पास लाते हुए आकाश ने कहा।
अनु के गाड़ी में बैठते ही आकाश ने गाडी को आगे बढ़ा दिया, गली का मोड़ काट कर गाड़ी को मैन सड़क पर घुमाते हुए हुए आकाश ने अपनी घड़ी की तरफ देखते हुए कहा "अनु बहुत लेट कर दिया तुमने, यहाँ से करीब बीस किलोमीटर की दूरी पर है सिनेमा हॉल, पहुँचते पहुँचते तो लगता है फिल्म शुरू भी हो जाएगी, लोग कहते हैं कि अगर शुरू से फिल्म नहीं देखि तो कहानी समझ में ही नहीं आएगी।"
अनु चुप थी, वह कार से बहार देखते हुए कुछ देर बाद दबी सी आवाज़ में बोली "आकाश कितना सूना रास्ता है, हमारी कार के इलावा और कोई वाहन दूर दूर तक नज़र नहीं आ रहा, ऐसे में तुम रात के शो की टिकट ले आये, मुझे तो बहुत डर लग रहा है। "
"अरे डरो नहीं मैं हूँ न तुम्हारे साथ, और फिर फिल्म देखने का मज़ा तो रात के शो में ही आता है।" आकाश ने अनु की आवाज़ में छिपे डर को भांपते हुए कहा और अपनी गाड़ी को बाईं तरफ मोड़ दिया। गाड़ी सरपट सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी, तभी अनु ने पूछा
"अभी कितना दूर है ?"
"बस वह सामने रौशनी दिख रही है ना, वही है ।" आकाश ने उत्तर दिया।
गाड़ी को पार्क करके दोनों ही तेज़ी से सिनेमा हॉल में चले गए, फिल्म शुरू हो चुकी थी, अपनी सीट पर बैठते हुए आकाश ने अनु की तरफ देखते हुए कहा "देखाना ! करीब पंद्रह मिनट की फिल्म निकल चुकी है।"
लेकिन अनु चुप थी, किसी गुनहगार की तरह।
फिल्म के बीच बीच में आकाश कभी कभी रोमांटिक होता हुआ कुछ बचकानी हरकत कर देता था, मगर जब अनु उसका हाथ झटक कर आँखें निकाल कर देखती तो वह एक आज्ञाकारी बालक की तरह बैठ जाता था।
फिल्म करीब पौने एक बजे खत्म हुई, हॉल से बाहर निकलते हुए आकाश ने अनु से कहा "देखाना, मैंने तुमसे कहा था न कि फिल्म अगर शुरू से नहीं देखी तो कहानी समझ में ही नहीं आएगी ? मुझे तो लगता है फिल्म एक बार फिर देखनी पड़ेगी "
"हां हां देखलेना मगर अभी तो यहां से जल्दी से निकलने की करो, ये सब गाड़ियां निकल रहीं हैं तो हम भी इन्हीं के साथ ही निकल चलें।" अनु ने कहा
कई गाड़ियां निकल रहीं थीं, आकाश भी उन्हीं गाड़ियों के साथ अपनी स्पीड बनाये हुए था, अभी करीब पांच छे किलोमीटर ही आगे आये थे की आकाश की गाडी अचानक डगमगाने लगी। डर के मारे अनु ने आकाश की तरफ देखा, तबतक आकाश ब्रेक मारके गाडी को कंट्रोल कर चूका था, गाडी को बंद करके नीचे उतर कर उसने टायर चैक किये और अनु के पास आकर बोला "टायर पंक्चर हो गया है, तुम यहीं गाडी में ही बैठो मैं अभी व्हील बदल देता हूँ, करीब पंद्रह बीस मिनट लगेंगे "
"तब तक तो सारी गाड़ियां निकल जाएंगी ?" अनु ने घबराई सी आवाज़ में पूछा।
"तुम घबराओ नहीं बस थोड़ी देर लगेगी " कहता हुआ आकाश अपने काम में लग गया।
अनु का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, उसने देखा धीरे धीरे उनके साथ वाली सभी गाड़ियां निकल चुकीं थीं, अब इस सुनसान सड़क पर बस अँधेरा था और उनकी गाडी थी। अँधेरा होने की वज़ह से आकाश को भी दिक्कत आ रही थी। सड़क पर गहरा सन्नाटा था, तभी अनु ने देखा सामने से कोई कार चली आ रही है, कार की गति कुछ दुरी पर ही कम हो गयी व कुछ ही पलों में वह कार उनकी कार की बराबरी पर आकर खड़ी हो गयी। अनु ने नज़रें घुमा कर देखा, ड्राइविंग सीट पर करीब ३५ वर्षीय युवक बैठा हुआ था, उसकी बगल में भी उसीका हमउम्र व्यक्ति था , पीछे की सीट पर भी दो व्यक्ति बैठे हुए थे मगर अनु ने उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। तभी आगे बैठे युवक ने अनु की तरफ देखते हुए पूछा "क्या हम आपकी कोई मदद कर सकते हैं।"
अनु की साँसे तेज़ चलने लगीं, उसने उनकी बात के जवाब में अपना मुंह फेर लिया।
कुछ देर वह लोग कार में बैठे कुछ खुसुर फुसुर करते रहे, फिर वे चारों ही कार में से बहार आये और उनमें से एक अनु वाली साइड पर आकर खड़ा हो गया, दूसरा कार की दूसरी साइड पर खड़ा हो गया, और वह दोनों में से एक कार के आगे और एक आकाश के पास जाकर बोला "क्या हम आपकी कुछ मदद कर सकते हैं ?" आकाश ने नज़रें उठा कर उस व्यक्ति की तरफ देखा और बोला नहीं बस अब सिर्फ नटे ही टाइट करनी हैं, शुक्रिया। "
"तो फिर आप हमारी मदद कर दीजिये " वह फिर बोला
"हां हां बोलिए ?" आकाश ने वहीँ बैठे हुए ही पूछा।
"आपकी बीवी बड़ी खूबसूरत है......" कहते हुए उसने आकाश को गर्दन से दबोच लिया। तबतक कार की अगलबगल खड़े दो युवक कार में समा चुके थे, अनु ने चीखने की कोशिश की मगर उनमे से एक ने अनु का मुह बंद कर दिया। आकाश उन दोनों के चंगुल से छूटने की बेतहाशा कोशिश कर रहा था, उसने चिल्लाने की भी कोशिश की मगर वह कामयाब नहीं हो सका, और फिर दरिंदगी का वह खेल आकाश की आँखों के सामने चलता रहा, उसने शर्म के मारे अपनी नज़रें झुकाली, अनु छटपटाती रही, चिल्लाने की कोशिश करती रही मगर कोई फायदा नहीं हुआ, पंछी फड़फड़ा रहा था और दरिंदे अपना खेल खेल रहे थे। पूरा एक घंटा चला वह दरिंदगी का खेल और उसके बाद चारों ही अपनी कार में फरार हो गए।
आकश किसी तरह व्हील की नटे कस कर कार का दरवाज़ा खोल कर ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया, उसने नज़रें घुमा कर पीछे की सीट पर देखा तो पाया अनु अपनी साड़ी से अपने बदन को ढकने की कोशिश कर रही थी, उसके बाल बिखरे हुए थे, और उसकी आँखों में आंसू थे, दोनों की नज़रें मिलीं और दोनों ही की नज़रें शर्म के मारे झुक गईं, मगर ना तो आकाश अनु के पास गया ना ही उसने उसके आंसू पोंछे।
घर पहुँच कर अनु अपने कमरे में चली गई, और आकाश वहीँ लिविंग रूम में ही सोफे पर धप्प से बैठ गया।
अनु अपने कपड़े बदल कर वहीँ बिस्तर पर बैठ गई, उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे, वह दहाड़ें मार कर रोना चाहती थी, तभी आकाश ने कमरे में प्रवेश किया और अनु की तरफ नज़रें कर के धीरे से बोला
"मैं पुलिस स्टेशन फोन लगा रहा हूँ, तुम्हे बात करनी होगी " .
"नहीं पुलिस स्टेशन फोन मत लगाना, पुलिस को इन्फॉर्म करने से क्या होगा ? वह लोग तो अबतक कहीं के कहीं पहुँच चुके होंगे, पुलिस मुझसे तरह तरह के सवाल पूछेगी 'रेप कितने लोगों ने किया ? कैसे किया ? रपे करते समय तुम्हारे कपड़े........कुछ देर रुकने के बाद अनु फिर बोली "मामला उछलेगा, प्रेस वाले आएंगे, न्यूज़ चैनल वाले आएंगे और सभी अपने अपने तरीके से सवाल पूछेंगे, अड़ोस पड़ोस ,मोहल्ले वाले, यहां तक कि सारा शहर जान जाएगा, तुम और मैं किस किस को जवाब देते फिरेंगे ? क्या मैं मोहल्ले में यां बाजार में निकल पाऊँगी ? सभी की नज़रें मुझ पर गढ़ी होंगी, सभी मुझसे कोई ना कोई सवाल करना चाहेंगे, किस किस को जवाब देती रहूंगी ? क्या तुम अपने ऑफिस में लोगों के चुभने वाले सवालों का जवाब दे पाओगे ?"
"मगर इस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी तो बुझदिली होगी" आकाश ने कहा
"प्लीज, मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ, मैं ज़िन्दगी के उस दौर से गुज़री हूँ जहां हर औरत सिर्फ और सिर्फ मौत ही चाहेगी। जिस औरत की इज़्ज़त उसीके पति के सामने लूटी गई हो और ………। "कहतेकहते वह फूट फूट कर रोने लगी, यूँ ही रोते रोते बोली "मुझे और ज़लील मत कीजिये कि मैं अपना अस्तित्व ही भूल जाऊं।"
आकाश चुप हो गया, वह असमंजस में था मगर फिर उसने भी सोचा कि 'दुनिया का सामना करना उसके लिए तो मुश्किल होगा ही मगर अनु के लिए तो और भी ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा।'
रात दोनों की ही बड़ी मुश्किल से गुज़री, दोनों ही सारी रात करवटें बदलते रहे, रह रह कर अनु की सिसकियों की आवाज़ें आकाश के कानों में पड़ रहीं थीं मगर ना तो आकाश ने अनु की तरफ देखा और ना ही अनु आकाश से नज़रें मिला पाई।
सुबह उठ कर आकाश अपने ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, मगर दोनों ही एक दूसरे से कतराते रहे,एक दूसरे का सामना करने से बचते रहे। नाश्ते की टेबल पर आकाश आकर बैठा तब भी अनु दुसरे कमरे में ही बैठी रही, आकाश भी नाश्ते की टेबल पर आकर बैठा ज़रूर मगर नाश्ता किये बिना ही ऑफिस चला गया।
ऑफिस में भी पूरा दिन आकाश आज गुमसुम सा बैठा रहा, उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था, रह रह कर रात की सारी घटना और उन चारों के चेहरे उसकी आँखों के सामने घूमते रहे और कार के अंदर की वो आवाज़ें आकाश के कानों से टकरा कर उसे विचलित कर रहीं थीं, गुस्से के मारे रह रह कर उसकी मुट्ठियाँ भींच जातीं थीं।
वैसे आकाश जब भी ऑफिस में होता था तो अनु दिन में दो तीन बार उसे फोन कर लेती थी, यां आकाश भी फुर्सत के समय अनु से फोन पर बात कर लेता था, मगर आज दोनों ही खामोश थे।
शाम को ऑफिस से निकल कर आकाश यु ही सडकों पर घूमता रहा, घर जाने का मन नहीं कर रहा था उसका। रात करीब साढ़े नौ बजे जब आकाश घर पहुंचा तो दरवाज़ा अनु ने ही खोला, वह दरवाज़े पर नज़रें झुकाये खड़ी थी, राकेश भी अपनी नज़रें दूसरी तरफ घुमाता हुआ सीधा अंदर चला गया। अनमने ढंग से खाना खा कर दोनों ही रात को बिना कोई बातचीत किये ही सो गए।
दिन गुज़रते रहे अनु जब भी आकाश से कोई बात करने की कोशिश करती तो वह बिना उसकी तरफ देखे ही उत्तर दे देता था। दिन अब इसी तरह तन्हां तन्हां से गुज़र रहे थे और रातें बिलकुल खामोश।
अनु का कोई भी कुसूर ना होने के बावजूद वह अपने आप को गुनहगार समझने लगी थी, वह अपने पति के रवैये से काफी परेशान थी, हादसे की इस घड़ी में उसे आकाश के प्यार, स्नेह और सहानुभूति की ज़रूरत थी, लेकिन आकाश था कि उसके सामने देखता तक नहीं था, प्यार तो दूर की बात थी, उस दिन के बाद आकाश ने उससे ठीक से बात भी नहीं की थी। वह जानती थी कि आकाश रात को ठीक से सो नहीं पाता, वह ठीक से खाना भी नहीं खाता था। वह सब कुछ सह सकती थी मगर आकाश को इस तरह रोज़ रोज़ मरता नहीं देख सकती थी।
रात का समय था। दोनों ही बिस्तर पर लेटे हुए थे। अनु ने घूम कर देखा आकाश की पीठ थी अनु की तरफ,तभी अनु हलके से उठी, खिड़की से छन कर आ रही चांदनी की रौशनी में उसने देखा आकाश शायद सो गया था। वह चुपके से उठी और दुसरे कमरे में गई, उसने कागज़ के ऊपर कुछ नोट्स लिखे और कागज़ को वहीँ पेपरवेट के निचे दबा कर रख दिया और बैग में अपने कपड़े रख कर कुछ लेने के लिए जैसे ही मुड़ी तो उसने आकाश को अपना लिखा वह कागज़ अपने हाथों में लिए खड़ा पाया।
"ये क्या है ? "
"मैं तुम्हें छोड़ कर जा रही हूँ "
"क्यों ?"
"मैं तुम्हें इस तरह रोज़ रोज़ घुट घुट कर मरते नहीं देख सकती "
"मगर मैंने तो कुछ भी नहीं कहा "
"यही तो दिक्कत है कि तुमने कुछ कहा नहीं, मगर तुम्हारी ख़ामोशी बहुत कुछ बयां कर रही है। तुम्हें मुझसे शिकायत है ना, मगर मुझे यह तो बतादो कि मेरा कुसूर क्या था ?" अनु ने कहा
"मुझे शिकायत तुमसे नहीं अपने आप से है, मैं ही तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाया "
"मगर तुम्हें पता है ऐसी घडी में जब मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारी ज़रूरत थी , तुम्ही नहीं थे मेरे पास ?" अनु कहते कहते फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी।
"मुझे माफ़ करदो अनु, मैं अपने ही जज़्बातों के साथ जीता रहा इस वज़ह से मेरा ध्यान ही नहीं गया तुम्हारी तरफ। तुम्हारा दर्द मैंने महसूस ही नहीं किया, मैंने सोचा ही नहीं तुमने क्या सहा ? तुमने क्या खोया है ? अनु,हम मर्द भी कितने खुदगर्ज़ होते हैं,पत्नी के साथ बलात्कार हो जाए तो हम पत्नी को ही छोड़ने को तैयार हो जाते हैं , मगर उस औरत के बारे में कभी नहीं सोचते जिसे उस पीड़ा से गुज़रना पड़ा, मैं भी सिर्फ अपने बारे में ही सोचता रहा, क्यूंकि मैं भी तो एक आम मर्द ही हूँ, तुम्हारा तो ख़्याल भी नहीं आया मेरे दिल में,मैं तो सिर्फ यही सोचता रहा कि अब तुम मेरे लायक नहीं रह गई हो,मैंने कभी सोचा ही नहीं कया कुसूर था तुम्हारा? मैंने कभी सोचा ही नहीं कि तुम्हें कितनी पीड़ा सहनी पड़ी उस रात, कितना मुश्किल होता होगा किसी भी औरत के लिए इतने बड़े हादसे को झेल पाना और तुम्हारे दर्द की उस घड़ी में मैंने ही तुम्हारा साथ नहीं दिया, क्यूंकि मेरी सोच भी तो एक आम मर्द जैसी ही है,अनु,हम मर्द कितना भी पढ़ लिख जाएँ, मगर सोच ? सोच तो वही रहेगी, दकियानूसी।अनु,असल में तो मैं हूँ तुम्हारा असली गुनहगार, मुझे माफ़ करदो अनु, मुझे माफ़ करदो । "
अनु आकाश के सीने से लगकर सिसक सिसक कर रोने लगी और आकाश हौले हौले से उसके सर पर हाथ फेरता रहा, अनु को लग रहा था जैसे उसकी भंवर में डोल रही कश्ती को माझी ने संभाल लिया हो।
Romy Kapoor (Kapildev)
"कैसी बातें करते हो ? मैं क्या लोगों के लिए तैयार होती हूँ ?" अनु ने नाराज़गी जताते हुए कहा और साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए आकाश के पास आकर खड़ी होते हुए ऐसे देखने लगी जैसे आकश से कुछ पूछ रही हो।
"अरे बाबा बहुत ही सुन्दर लग रही हो, अब जल्दी चलो आधी फिल्म देखनी है क्या ?"
दोनों ही तेज़ी से बहार की और बढ़ गए, ताला अनु के हाथ में थमाते हुए आकाश ने कहा "तुम ठीक से लॉक लगाओ तबतक मैं गाडी निकालता हूँ" कहते हुए आकाश आगे बढ़ गया।
"चलो अनु जल्दी करो " गाड़ी को अनु के पास लाते हुए आकाश ने कहा।
अनु के गाड़ी में बैठते ही आकाश ने गाडी को आगे बढ़ा दिया, गली का मोड़ काट कर गाड़ी को मैन सड़क पर घुमाते हुए हुए आकाश ने अपनी घड़ी की तरफ देखते हुए कहा "अनु बहुत लेट कर दिया तुमने, यहाँ से करीब बीस किलोमीटर की दूरी पर है सिनेमा हॉल, पहुँचते पहुँचते तो लगता है फिल्म शुरू भी हो जाएगी, लोग कहते हैं कि अगर शुरू से फिल्म नहीं देखि तो कहानी समझ में ही नहीं आएगी।"
अनु चुप थी, वह कार से बहार देखते हुए कुछ देर बाद दबी सी आवाज़ में बोली "आकाश कितना सूना रास्ता है, हमारी कार के इलावा और कोई वाहन दूर दूर तक नज़र नहीं आ रहा, ऐसे में तुम रात के शो की टिकट ले आये, मुझे तो बहुत डर लग रहा है। "
"अरे डरो नहीं मैं हूँ न तुम्हारे साथ, और फिर फिल्म देखने का मज़ा तो रात के शो में ही आता है।" आकाश ने अनु की आवाज़ में छिपे डर को भांपते हुए कहा और अपनी गाड़ी को बाईं तरफ मोड़ दिया। गाड़ी सरपट सड़क पर दौड़ी चली जा रही थी, तभी अनु ने पूछा
"अभी कितना दूर है ?"
"बस वह सामने रौशनी दिख रही है ना, वही है ।" आकाश ने उत्तर दिया।
गाड़ी को पार्क करके दोनों ही तेज़ी से सिनेमा हॉल में चले गए, फिल्म शुरू हो चुकी थी, अपनी सीट पर बैठते हुए आकाश ने अनु की तरफ देखते हुए कहा "देखाना ! करीब पंद्रह मिनट की फिल्म निकल चुकी है।"
लेकिन अनु चुप थी, किसी गुनहगार की तरह।
फिल्म के बीच बीच में आकाश कभी कभी रोमांटिक होता हुआ कुछ बचकानी हरकत कर देता था, मगर जब अनु उसका हाथ झटक कर आँखें निकाल कर देखती तो वह एक आज्ञाकारी बालक की तरह बैठ जाता था।
फिल्म करीब पौने एक बजे खत्म हुई, हॉल से बाहर निकलते हुए आकाश ने अनु से कहा "देखाना, मैंने तुमसे कहा था न कि फिल्म अगर शुरू से नहीं देखी तो कहानी समझ में ही नहीं आएगी ? मुझे तो लगता है फिल्म एक बार फिर देखनी पड़ेगी "
"हां हां देखलेना मगर अभी तो यहां से जल्दी से निकलने की करो, ये सब गाड़ियां निकल रहीं हैं तो हम भी इन्हीं के साथ ही निकल चलें।" अनु ने कहा
कई गाड़ियां निकल रहीं थीं, आकाश भी उन्हीं गाड़ियों के साथ अपनी स्पीड बनाये हुए था, अभी करीब पांच छे किलोमीटर ही आगे आये थे की आकाश की गाडी अचानक डगमगाने लगी। डर के मारे अनु ने आकाश की तरफ देखा, तबतक आकाश ब्रेक मारके गाडी को कंट्रोल कर चूका था, गाडी को बंद करके नीचे उतर कर उसने टायर चैक किये और अनु के पास आकर बोला "टायर पंक्चर हो गया है, तुम यहीं गाडी में ही बैठो मैं अभी व्हील बदल देता हूँ, करीब पंद्रह बीस मिनट लगेंगे "
"तब तक तो सारी गाड़ियां निकल जाएंगी ?" अनु ने घबराई सी आवाज़ में पूछा।
"तुम घबराओ नहीं बस थोड़ी देर लगेगी " कहता हुआ आकाश अपने काम में लग गया।
अनु का दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, उसने देखा धीरे धीरे उनके साथ वाली सभी गाड़ियां निकल चुकीं थीं, अब इस सुनसान सड़क पर बस अँधेरा था और उनकी गाडी थी। अँधेरा होने की वज़ह से आकाश को भी दिक्कत आ रही थी। सड़क पर गहरा सन्नाटा था, तभी अनु ने देखा सामने से कोई कार चली आ रही है, कार की गति कुछ दुरी पर ही कम हो गयी व कुछ ही पलों में वह कार उनकी कार की बराबरी पर आकर खड़ी हो गयी। अनु ने नज़रें घुमा कर देखा, ड्राइविंग सीट पर करीब ३५ वर्षीय युवक बैठा हुआ था, उसकी बगल में भी उसीका हमउम्र व्यक्ति था , पीछे की सीट पर भी दो व्यक्ति बैठे हुए थे मगर अनु ने उनकी तरफ कोई ध्यान नहीं दिया। तभी आगे बैठे युवक ने अनु की तरफ देखते हुए पूछा "क्या हम आपकी कोई मदद कर सकते हैं।"
अनु की साँसे तेज़ चलने लगीं, उसने उनकी बात के जवाब में अपना मुंह फेर लिया।
कुछ देर वह लोग कार में बैठे कुछ खुसुर फुसुर करते रहे, फिर वे चारों ही कार में से बहार आये और उनमें से एक अनु वाली साइड पर आकर खड़ा हो गया, दूसरा कार की दूसरी साइड पर खड़ा हो गया, और वह दोनों में से एक कार के आगे और एक आकाश के पास जाकर बोला "क्या हम आपकी कुछ मदद कर सकते हैं ?" आकाश ने नज़रें उठा कर उस व्यक्ति की तरफ देखा और बोला नहीं बस अब सिर्फ नटे ही टाइट करनी हैं, शुक्रिया। "
"तो फिर आप हमारी मदद कर दीजिये " वह फिर बोला
"हां हां बोलिए ?" आकाश ने वहीँ बैठे हुए ही पूछा।
"आपकी बीवी बड़ी खूबसूरत है......" कहते हुए उसने आकाश को गर्दन से दबोच लिया। तबतक कार की अगलबगल खड़े दो युवक कार में समा चुके थे, अनु ने चीखने की कोशिश की मगर उनमे से एक ने अनु का मुह बंद कर दिया। आकाश उन दोनों के चंगुल से छूटने की बेतहाशा कोशिश कर रहा था, उसने चिल्लाने की भी कोशिश की मगर वह कामयाब नहीं हो सका, और फिर दरिंदगी का वह खेल आकाश की आँखों के सामने चलता रहा, उसने शर्म के मारे अपनी नज़रें झुकाली, अनु छटपटाती रही, चिल्लाने की कोशिश करती रही मगर कोई फायदा नहीं हुआ, पंछी फड़फड़ा रहा था और दरिंदे अपना खेल खेल रहे थे। पूरा एक घंटा चला वह दरिंदगी का खेल और उसके बाद चारों ही अपनी कार में फरार हो गए।
आकश किसी तरह व्हील की नटे कस कर कार का दरवाज़ा खोल कर ड्राइविंग सीट पर आकर बैठ गया, उसने नज़रें घुमा कर पीछे की सीट पर देखा तो पाया अनु अपनी साड़ी से अपने बदन को ढकने की कोशिश कर रही थी, उसके बाल बिखरे हुए थे, और उसकी आँखों में आंसू थे, दोनों की नज़रें मिलीं और दोनों ही की नज़रें शर्म के मारे झुक गईं, मगर ना तो आकाश अनु के पास गया ना ही उसने उसके आंसू पोंछे।
घर पहुँच कर अनु अपने कमरे में चली गई, और आकाश वहीँ लिविंग रूम में ही सोफे पर धप्प से बैठ गया।
अनु अपने कपड़े बदल कर वहीँ बिस्तर पर बैठ गई, उसकी आँखों से आंसू बह रहे थे, वह दहाड़ें मार कर रोना चाहती थी, तभी आकाश ने कमरे में प्रवेश किया और अनु की तरफ नज़रें कर के धीरे से बोला
"मैं पुलिस स्टेशन फोन लगा रहा हूँ, तुम्हे बात करनी होगी " .
"नहीं पुलिस स्टेशन फोन मत लगाना, पुलिस को इन्फॉर्म करने से क्या होगा ? वह लोग तो अबतक कहीं के कहीं पहुँच चुके होंगे, पुलिस मुझसे तरह तरह के सवाल पूछेगी 'रेप कितने लोगों ने किया ? कैसे किया ? रपे करते समय तुम्हारे कपड़े........कुछ देर रुकने के बाद अनु फिर बोली "मामला उछलेगा, प्रेस वाले आएंगे, न्यूज़ चैनल वाले आएंगे और सभी अपने अपने तरीके से सवाल पूछेंगे, अड़ोस पड़ोस ,मोहल्ले वाले, यहां तक कि सारा शहर जान जाएगा, तुम और मैं किस किस को जवाब देते फिरेंगे ? क्या मैं मोहल्ले में यां बाजार में निकल पाऊँगी ? सभी की नज़रें मुझ पर गढ़ी होंगी, सभी मुझसे कोई ना कोई सवाल करना चाहेंगे, किस किस को जवाब देती रहूंगी ? क्या तुम अपने ऑफिस में लोगों के चुभने वाले सवालों का जवाब दे पाओगे ?"
"मगर इस तरह हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना भी तो बुझदिली होगी" आकाश ने कहा
"प्लीज, मैं आपके आगे हाथ जोड़ती हूँ, मैं ज़िन्दगी के उस दौर से गुज़री हूँ जहां हर औरत सिर्फ और सिर्फ मौत ही चाहेगी। जिस औरत की इज़्ज़त उसीके पति के सामने लूटी गई हो और ………। "कहतेकहते वह फूट फूट कर रोने लगी, यूँ ही रोते रोते बोली "मुझे और ज़लील मत कीजिये कि मैं अपना अस्तित्व ही भूल जाऊं।"
आकाश चुप हो गया, वह असमंजस में था मगर फिर उसने भी सोचा कि 'दुनिया का सामना करना उसके लिए तो मुश्किल होगा ही मगर अनु के लिए तो और भी ज़्यादा मुश्किल हो जाएगा।'
रात दोनों की ही बड़ी मुश्किल से गुज़री, दोनों ही सारी रात करवटें बदलते रहे, रह रह कर अनु की सिसकियों की आवाज़ें आकाश के कानों में पड़ रहीं थीं मगर ना तो आकाश ने अनु की तरफ देखा और ना ही अनु आकाश से नज़रें मिला पाई।
सुबह उठ कर आकाश अपने ऑफिस के लिए तैयार हो रहा था, मगर दोनों ही एक दूसरे से कतराते रहे,एक दूसरे का सामना करने से बचते रहे। नाश्ते की टेबल पर आकाश आकर बैठा तब भी अनु दुसरे कमरे में ही बैठी रही, आकाश भी नाश्ते की टेबल पर आकर बैठा ज़रूर मगर नाश्ता किये बिना ही ऑफिस चला गया।
ऑफिस में भी पूरा दिन आकाश आज गुमसुम सा बैठा रहा, उसका किसी भी काम में मन नहीं लग रहा था, रह रह कर रात की सारी घटना और उन चारों के चेहरे उसकी आँखों के सामने घूमते रहे और कार के अंदर की वो आवाज़ें आकाश के कानों से टकरा कर उसे विचलित कर रहीं थीं, गुस्से के मारे रह रह कर उसकी मुट्ठियाँ भींच जातीं थीं।
वैसे आकाश जब भी ऑफिस में होता था तो अनु दिन में दो तीन बार उसे फोन कर लेती थी, यां आकाश भी फुर्सत के समय अनु से फोन पर बात कर लेता था, मगर आज दोनों ही खामोश थे।
शाम को ऑफिस से निकल कर आकाश यु ही सडकों पर घूमता रहा, घर जाने का मन नहीं कर रहा था उसका। रात करीब साढ़े नौ बजे जब आकाश घर पहुंचा तो दरवाज़ा अनु ने ही खोला, वह दरवाज़े पर नज़रें झुकाये खड़ी थी, राकेश भी अपनी नज़रें दूसरी तरफ घुमाता हुआ सीधा अंदर चला गया। अनमने ढंग से खाना खा कर दोनों ही रात को बिना कोई बातचीत किये ही सो गए।
दिन गुज़रते रहे अनु जब भी आकाश से कोई बात करने की कोशिश करती तो वह बिना उसकी तरफ देखे ही उत्तर दे देता था। दिन अब इसी तरह तन्हां तन्हां से गुज़र रहे थे और रातें बिलकुल खामोश।
अनु का कोई भी कुसूर ना होने के बावजूद वह अपने आप को गुनहगार समझने लगी थी, वह अपने पति के रवैये से काफी परेशान थी, हादसे की इस घड़ी में उसे आकाश के प्यार, स्नेह और सहानुभूति की ज़रूरत थी, लेकिन आकाश था कि उसके सामने देखता तक नहीं था, प्यार तो दूर की बात थी, उस दिन के बाद आकाश ने उससे ठीक से बात भी नहीं की थी। वह जानती थी कि आकाश रात को ठीक से सो नहीं पाता, वह ठीक से खाना भी नहीं खाता था। वह सब कुछ सह सकती थी मगर आकाश को इस तरह रोज़ रोज़ मरता नहीं देख सकती थी।
रात का समय था। दोनों ही बिस्तर पर लेटे हुए थे। अनु ने घूम कर देखा आकाश की पीठ थी अनु की तरफ,तभी अनु हलके से उठी, खिड़की से छन कर आ रही चांदनी की रौशनी में उसने देखा आकाश शायद सो गया था। वह चुपके से उठी और दुसरे कमरे में गई, उसने कागज़ के ऊपर कुछ नोट्स लिखे और कागज़ को वहीँ पेपरवेट के निचे दबा कर रख दिया और बैग में अपने कपड़े रख कर कुछ लेने के लिए जैसे ही मुड़ी तो उसने आकाश को अपना लिखा वह कागज़ अपने हाथों में लिए खड़ा पाया।
"ये क्या है ? "
"मैं तुम्हें छोड़ कर जा रही हूँ "
"क्यों ?"
"मैं तुम्हें इस तरह रोज़ रोज़ घुट घुट कर मरते नहीं देख सकती "
"मगर मैंने तो कुछ भी नहीं कहा "
"यही तो दिक्कत है कि तुमने कुछ कहा नहीं, मगर तुम्हारी ख़ामोशी बहुत कुछ बयां कर रही है। तुम्हें मुझसे शिकायत है ना, मगर मुझे यह तो बतादो कि मेरा कुसूर क्या था ?" अनु ने कहा
"मुझे शिकायत तुमसे नहीं अपने आप से है, मैं ही तुम्हारी रक्षा नहीं कर पाया "
"मगर तुम्हें पता है ऐसी घडी में जब मुझे सबसे ज़्यादा तुम्हारी ज़रूरत थी , तुम्ही नहीं थे मेरे पास ?" अनु कहते कहते फ़ूट फ़ूट कर रोने लगी।
"मुझे माफ़ करदो अनु, मैं अपने ही जज़्बातों के साथ जीता रहा इस वज़ह से मेरा ध्यान ही नहीं गया तुम्हारी तरफ। तुम्हारा दर्द मैंने महसूस ही नहीं किया, मैंने सोचा ही नहीं तुमने क्या सहा ? तुमने क्या खोया है ? अनु,हम मर्द भी कितने खुदगर्ज़ होते हैं,पत्नी के साथ बलात्कार हो जाए तो हम पत्नी को ही छोड़ने को तैयार हो जाते हैं , मगर उस औरत के बारे में कभी नहीं सोचते जिसे उस पीड़ा से गुज़रना पड़ा, मैं भी सिर्फ अपने बारे में ही सोचता रहा, क्यूंकि मैं भी तो एक आम मर्द ही हूँ, तुम्हारा तो ख़्याल भी नहीं आया मेरे दिल में,मैं तो सिर्फ यही सोचता रहा कि अब तुम मेरे लायक नहीं रह गई हो,मैंने कभी सोचा ही नहीं कया कुसूर था तुम्हारा? मैंने कभी सोचा ही नहीं कि तुम्हें कितनी पीड़ा सहनी पड़ी उस रात, कितना मुश्किल होता होगा किसी भी औरत के लिए इतने बड़े हादसे को झेल पाना और तुम्हारे दर्द की उस घड़ी में मैंने ही तुम्हारा साथ नहीं दिया, क्यूंकि मेरी सोच भी तो एक आम मर्द जैसी ही है,अनु,हम मर्द कितना भी पढ़ लिख जाएँ, मगर सोच ? सोच तो वही रहेगी, दकियानूसी।अनु,असल में तो मैं हूँ तुम्हारा असली गुनहगार, मुझे माफ़ करदो अनु, मुझे माफ़ करदो । "
अनु आकाश के सीने से लगकर सिसक सिसक कर रोने लगी और आकाश हौले हौले से उसके सर पर हाथ फेरता रहा, अनु को लग रहा था जैसे उसकी भंवर में डोल रही कश्ती को माझी ने संभाल लिया हो।
Romy Kapoor (Kapildev)
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