जगजीत सिंघ जी की एक ग़ज़ल तो सभीने सुनी होगी 'ये दौलत भी लेलो ये शोहरत भी लेलो, भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी, मगर मुझको लौटादो बचपन मेरा, वो कागज़ की कश्ती वो बारिश का पानी ' कुछ ऐसी ही चाह हम सभी में छुपी हुई है।
मेरा भी बचपन का एक मित्र है। बचपन ही से हमारी दोस्ती काफी मशहूर थी, जब भी कोई हम में से किसी को अकेला देखता तो पूछ ही लेता "क्या बात है आज तुम्हारा जोड़ीदार नहीं है तुम्हारे साथ ?"
हम अक्सर अपने दिल की बातें एक दुसरे से शेयर किया करते थे। मेरा मित्र बहुत ही सेन्सिटिव व्यक्ति था। किसी के दुःख में वह दुखी और किसीकी ख़ुशी में वह ऐसे खुश होता था जैसे वह ख़ुशी और दुःख उसके अपने हों। बड़ा ही ज़िन्दा दिल इन्सान था वह । उसकी सोच काफी अलग थी। कई बार हममे कई बातों को लेकर बहस हो जाती थी, मगर हमेशा जीत उसी की होती थी। अंत में वह मुझे मना ही लेता था।
एक दिन पास ही में एक पति पत्नी को लड़ते झगड़ते देख वह किसी गहरी सोच में डूब गया, जब मैंने उसे झकझोड़ा तो जैसे नींद में से जागते हुए उसने कहा "यार, ये पति पत्नी आपस में इतना लड़ते झगड़ते क्यूँ हैं ? क्या किसीको भी यह पता है की कौन कितना जीएगा ? जितनी भी ज़िन्दगी है वह हंस खेल कर क्यों नहीं गुज़ारी जा सकती ? ताकि भगवन न करे अगर दोनों में से एक भी अगर अचानक चला जाता है तो कुछ मधुर यादें तो होंगी जो उस ज़िंदा व्यक्ति के चेहरे पर मुस्कुराहट ला सकती हैं। वह मधुर यादें शायद उसके ज़िंदा रहने के लिए काफी होंगी। " मैंने उसकी आँखों में देखा, उसने आगे बोलते हुए कहा "देखना मैं अपनी पत्नी को कितना खुश रखूँगा, बहुत प्यार दूंगा उसे , हमेश पलकों पर बिठा के रखूँगा।"
मै आज भी जब अकेला बैठा होता हूँ तो उसकी वह बातें मुझे याद आती हैं, उसीके बारे में मैं सोचता रहता था।मैंने अक्सर लोगों को यह कहते सुना है कि ' एक लड़की कितना बड़ा बलिदान देती है ! वह अपना घर, परिवार छोड़ कर एक अजनबी घर को अपना घर बना लेती है।' मगर जब भी मैं अपने मित्र को देखता हूँ तो सोचता हूँ कि क्यूँ सिर्फ एक लड़की ? क्या एक लड़का एक अनजान लड़की, जिसे वह कभी मिला ही नहीं ,जिसे वह अच्छी तरह से जानता भी नहीं, को अपने पूरे घर की ज़िम्मेदारी सौप कर एक बड़ा रिस्क नहीं लेता ? उसके माता पिता के अरमान, भाई बहनो का स्नेह, सभी कुछ तो सौप देता है। लेकिन अगर लड़की सही निकली तो ठीक अगर वह गलत निकली तो ? कहते हैं एक अच्छी औरत घर को स्वर्ग बना देती है मगर एक बुरी औरत घर को नर्क भी तो बना देती है।
कुछ ऐसा ही मेरे मित्र के साथ भी हुआ। शादी के बाद मैंने उसकी ज़िन्दगी को रेल गाड़ी की तरह पटरी से उतर कर बिखरते हुए देखा था। जहाँ तक मुझे याद है उसकी शादी के कुछ ही समय बाद उसकी ज़िंदगी में बवंडर उठने लगे थे। कितना खुश था वह अपनी शादी पर ! शादी के बाद कुछ समय बाद तक तो वह जब भी मुझसे मिलता, उसके चेहरे पर एक अजीब सी ख़ुशी और चमक नज़र आती थी। मगर वह ख़ुशी बहुत ही जल्द गायब होने लगी थी। मै उसमे आये इस बदलाव को भली भांति भांप रहा था। मैंने एक दिन उससे पूछा "यार क्या बात है तुम आजकल काफी बुझे बुझे से रहते हो ?" तब उसने बड़ी ही मायूसी के साथ कहा था "क्या बताऊँ ? शादी के बाद कुछ समय तो ठीक गुज़रा, मगर अब सारे सपने चूर चूर होते नज़र आ रहे हैं। रूपा (उसकी पत्नी) हर रोज़ मेरे माँ और बाबा से लड़ती झगड़ती रहती है, न ही उसकी मेरे बहन भाइयों से बनती है। मै जब भी ऑफिस से घर लौटता हूँ तो एक नया झगड़ा और एक नयी उलझन। मैने रूपा को काफी समझाने की कोशिश की मगर अब तो वह मुझसे भी लड़ती झगड़ती रहती है। कई बार तो रात रात भर वह लड़ती रहती है। मुझे समझ में नहीं आ रहा है कि मै क्या करू ? इन रोज़ रोज़ के झगड़ों से मैं परेशान हो गया हूँ।"
अबतो उसके चहरे पर कभी कभी दिखने वाली हंसी भी गायब हो गयी थी। उसने हर प्रकार से अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की थी। कभी प्यार से तो कभी डांट कर उसदिन तो उसने अपनी पत्नी को थप्पड़ भी मार दिया था। "यार मैंने कभी सोचा नहीं था कि मै कभी अपनी ज़िन्दगी में अपनी पत्नी पर हाथ भी उठाऊंगा" ?उसने बड़े ही दुखी मन से कहा था। मुझे याद आ रहे थे वह शब्द जो उसने एक दम्पति को लड़ता देख कर कहे थे "यार ये पति पत्नी आपस में इतना लड़ते झगड़ते क्यूँ हैं ?......" सचमुच इन्सान कई बार कितना लाचार हो जाता है ! वह सोचता कुछ है और होता कुछ, तभी तो कहते हैं 'कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता, कहीं ज़मीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता"
"यार ज़िन्दगी अब तो बोझ सी लगने लगी है। रूपा किसी भी बात को समझने को तैयार ही नहीं, उसके घर वालों से कहता हूँ तो वह मुझे ही दोषी ठहरा कर मुझसे ही लड़ना शुरू कर देते हैँ। थके पावों पर अपनी ज़िन्दगी का बोझ उठाते उठाते अब थकान सी महसूस होने लगी है। ज़िन्दगी बालू के घर की तरह ढह गयी है... मैंने ज़िन्दगी से ऐसा तो कुछ नहीं माँगा था। फिर क्यों.....?" उसकी आँखों का दर्द मैं ठीक से देख पा रहा था।
मैंने भी उसकी पत्नी को समझाने की काफी कोशिश की थी ,मगर मुझे लगा था कि उसमे इतनी समझ ही नहीं थी कि वह कुछ बातों को समझ सके। क्या कोई औरत इतनी भी बेवकूफ हो सकती है कि वह अपने ही घर को नरक बना कर उसमे बड़े ही आराम से रहे ?
यहाँ गलती उसके मायके वालों की भी थी। शादी के बाद ज़रूरत से ज़्यादा अपनी लड़की के घरेलु मामलों में दखल अंदाज़ी करना और शादी के बाद अपनी लड़की को ज़रुरत से ज़्यादा प्रोटेक्ट करना, घरों को बर्बाद कर के रख देता है। शादी के बाद लड़की का अपने मायके में ससुराल की सारी बातें बताना और हर बात में अपने मायके की सलाह पर चलना वैवाहिक जीवन के लिए काफ़ी घातक साबित हो सकता हे।
ऐसा नहीं था कि रूपा के माता पिता और बहन भाई उसके स्वाभाव के बारे में जानते नहीं थे, ऐसे में जब उसके मायके में झगड़ों की बात पहुंची तभी उसे सपोर्ट करने की बजाय अगर उन्होंने सख्ती से उसे समझाया होता तो शायद मेरे मित्र की ज़िन्दगी में इतना तूफ़ान नहीं आया होता। मैने लोगों को यह कहते सुना है कि बहु को बेटी का दर्ज़ा देना चाहिए तो क्या यह बात दामाद के लिए लागु नहीं होती ? काया दामाद को भी एक बेटा समझ कर उसकी बातों को भी नहीं सुना जाना चाहिए ?
जहाँ तक मै अपने दोस्त को जनता हूँ, अगर उसकी पत्नी घर में सबसे प्यार से रहती और अपने पति को भी ठीक से समझती तो वह उस घर में बहुत सी खुशियां पाती और वो घर जो आज नर्क बना हुआ था, एक स्वर्ग बन जाता।
अब मेरा दोस्त मुझे कभी कभी ही दिखाई देता है और जब कभी मिल भी जाता है, मुझे लगता है वह कितना थक चूका है, अंदर से टूट चूका है। ऐसा लगता था जैसे वह अपने अरमानों की अर्थी को अपने ही कन्धों पर ढो रहा है। उसकी आँखों में एक गहरी उदासी थी मगर कईं सवाल भी छुपे हुए थे... शायद ऊपर वाले से पूछ रहा था कि "क्या गुनाह था उसका जो उसे ऐसी ज़िन्दगी मिली थी ?" वह चुप था मगर उसकी इस चुप्पी में भी मैं उसके दिल की आवाज़ को साफ़ सुन पा रहा था। शायद वह कह रहा था
"जीने के लिए सोचा ही न था दर्द सँभालने होंगे
मुस्कुराये तो मुस्कुराने के क़र्ज़ उतारने होंगे "
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