Monday, February 23, 2015

यादें


               



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"अरे बेटा सोनू अपनी बहन के साथ लड़ क्यों रहा है ? तुम्हारी बड़ी  बहन है , हर समय उससे लड़ता रहता है। " अपनी बूढी आँखों पर गांधी चश्मा, जो की सरक  कर  नाक पर आ गया था, उसी को अपने दाहिने हाथ की बीचवाली ऊँगली से ठीक करते हुए सूरजप्रकाश ने अपने पोते को हल्का  सा डांटते हुए कहा।

"दादाजी देखोना ये बिल्ली मेरी चॉकलेट नहीं दे रही" सोनू ने बड़े ही भोलेपन से अपने दादाजी के पास आकर शिकायत भरी आवाज़ में कहा।
"बेटी प्रीति तुम देदो अपने छोटे भाई की चॉकलेट, तुम तो बड़ी हो ना, मैं तुम्हे कल और ला कर दूंगा। " सूरजप्रकाश ने अपनी पोती को समझाते  हुए कहा।
"दादाजी उसने पहले मेरी दो चॉकलेट खाई। " प्रीति ने भी अपनी आँखों को मलते  हुए दादाजी से शिकायत की।
"कोई बात नहीं बेटा वो छोटा है तुमसे, मैं तुम्हे कल बहुत सारी चॉकलेट ला दूंगा, फिर हम इस बदमाश को एक भी चॉकलेट नहीं देंगे। "
"ठीक है दादाजी " कहते हुए उसने अपनी  हथेलियों में दबा कर रखीं दोनों चॉकलेट अपने छोटे भाई की तरफ फेंक दी।
"बेटा गन्दी बात, ऐसे फेंक कर किसी को चीज़ नहीं देते।  सॉरी बोलो।"
"सॉरी भुख्खड़। " कहते हुए उसने जीभ निकाल कर चिढ़ाने लगी।
"दादाजी देखो ना मुझे भुख्खड़ कहती है। "
लेकिन सूरजप्रकाश मंद मंद मुस्कुराते हुए दोनोंकी इस मीठी सी नोंक झोंक का मज़ा ले  रहे थे। बस इन्ही बच्चों में उनका पूरा दिन कहां व्यतीत हो जात पता ही नहीं चलता था।  
तभी दरवाज़े पर हो रही दस्तक ने सूरजप्रकाश को चौंका दिया, लगा जैसे किसी गहरी नींद से जाग उठे हों। पहले नाक पर सरक आये चश्मे को ऊँगली से ऊपर किया , चौंक कर कमरे में नज़रें घुमाई वहां न तो निशा थी और ना ही सोनू। उनके चेहरे पर मायूसी सी छा गयी उसी मायूसी के साथ उन्होंने  फिर दरवाज़े पर नज़रें टिका दीं। दरवाज़े पर फिर से ज़ोर की थपथपाहट हुई। उन्होंने अँधेरे में ही दिवार को टटोलते हुए लाइट का स्विच ओन किया, कमरे में रौशनी होते ही फिर अपने चश्मे  को अपनी कांपती ऊँगली से नाक से ऊपर करते हुए घडी की तरफ देखा जो रात के साढ़े आठ का समय दिखा  रही थी। सोहनलाल धीरे धीरे चलकर  दरवाज़े तक पहुंचे और हलके  से दरवाज़ा खोल दिया।  
"अरे अंकल सो गए थे क्या ? मैं कबसे दरवाज़ा खट खटा  रही हूँ। "
दरवाज़ा खोलते ही एक हाथ में खाने की थाली लिए करीब १५-१६ साल की लड़की ने कहा।
निशा नाम था उसका और वो सोहनलाल के पड़ोस में रहती थी।
"बेटी मैंने तुझे कितनी बार कहा, तेरे पापा से और मां से भी कहा कि रोज़  मेरे लिए इतनी तकलीफ ना किया करें, मैं खा लिया करूँगा कुछ भी।" सोहनलाल ने हलके से झिड़की देते हुए कहा। मगर वह दिल में ये जानते थे कि उनकी इन बातों का कोई भी असर नहीं होने वाला था।
"बाबा आप हटिये, जा बेटी तू अंदर जा कर टेबल पर खाना रख दे, ये तो इनका रोज़ का काम है।" पीछे से निशा की मां ने आते हुए कहा। चलिए बाबा टेबल पर खाना रख दिया है, चल कर खाना खा लीजिये। " सोहनलाल का हाथ पकड़ कर उन्हें धीरे से कमरे में लेजाते हुए कहा।
"बहुत ही ज़िद्दी हो तुम, मेरी तो एक भी बात नहीं मानती। " सोहनलाल ने मुस्कुराते  हुए कहा।
सोहनलाल को धीरे से कुर्सी पर बैठाते हुए बोली "हां सुनूंगी पहले आप आराम से बैठ कर खाना खा लीजिये, मैं अभी थोड़ी  देर में आकर बर्तन ले जाउंगी। " फिर अपनी बेटी निशा की तरफ देखते हुए बोली "चल बेटी बाबा को आराम  से खाना खा लेने दे, फिर आकर बर्तन ले आना ।"
देखिये अगर आप ने थोड़ा भी खाना बचाया तो मैं इसके पापा से शिकायत कर दूँगी। " सोहनलाल को हल्का सा धमकाते हुए उसने कहा और मां बेटी  चली गई।
राजीव बत्रा नाम था निशा के पापा का और  उनके बड़े ही कड़े निर्देश थे  सोहनलाल का  पूरी तरह  से ध्यान रखने का ।

बड़ा ही ध्यान रखते थे सभी, बिलकुल अपने घर के सदस्य की तरह। राजीव खुद भी ऑफिस से आकर तबतक उनके पास बैठा रहता जबतक सोहनलाल सो नहीं जाते।

खाना सोहनलाल के सामने पड़ा था, तभी जैसे अंदर से आवाज़ आई "सुनो आप क्या कर रहे हो ? कब से खाना टेबल पर रखा हुआ है, आपको कबसे आवाज़ लगा रही हूँ , खाना ठंडा हो रहा है। " आवाज़ उनकी पत्नी  की थी।
"हां....हां सुनलिया, बच्चों को आ लेने  दो फिर साथ में बैठ कर खाना खाते हैं। " सोहनलाल ने अंदर ही से आवाज़ दी।
सुनते ही उनकी पत्नी ने सर पर हाथ मारते हुए कहा "ये लो और सुनो छत्तीस बार कह चुकी हूँ कि  वह लोग आनंद बेटे की ऑफिस के एक साथी के वहां एक पार्टी थी सो रात का खाना खा कर ही आएंगे ."
"ओहो तो फिर तुम हमारे साथ बैठ कर खाना खाओ ! " रसोई घर में पीछे से आकर अपनी पत्नी को कमर से पकड़ते हुए सोहनलाल ने कहा !
"अरे क्या कर रहे हो ? छोडो !" उनकी पत्नी सुशीला ने छट पटाते हुए कहा।
"लो छोड़ दिया !" सोहनलाल ने अपनी पत्नी को छोड़ते हुए कहा।

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"अब आप जकर टेबल पर बैठो, मैं खाना गरम कर के लाती हूँ  फिर दोनों साथ में बैठ कर खाएंगे। "
खाना खाने दोनों साथ ही बैठे थे, सोहनलाल ने एक निवाला तोड़कर प्यार से अपनी पत्नी के मुह में डाला .....!
"अरे बाबा , आपने अभीतक खाना शुरू भी नहीं किया ? क्या कर रहे हैं ? क्या सोचते रहते हैं ? निशा ने कमरे में प्रवेश करते हुए सोहनलाल को एक साथ ही कई सवाल पूछ लिए ।
सोहनलाल का निवाला खिलाने  वाला हाथ वहीँ रुक गया, वह जैसे किसी गहरी नींद से जागे।   
"बेटी मैंने अभी तुम्हारी ऑन्टी को देखा.....हम दोनों साथ में बैठ कर खाना खा रहे थे...ये देखो..." सोहनलाल ने थाली की तरफ देखते हुए कहा, मगर थाली को देखते ही उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं, अपनी नाक पर सरक आये चश्मे को ठीक करते हुए उन्होंने निशा की तरफ देखा ।
"कहाँ से खाना खाया ? थाली तो वैसी ही पड़ी हुई है, एक भी निवाला नहीं टुटा, अब मैं यही बैठती हूँ, आप बस अब जल्दी से खाना फिनिश करो " निशा समझ गई थी कि वह फिर किन्ही यादों में खो गए थे। 
सोहनलाल के खाना खाने के बाद वह बर्तन लेकर जाते हुए कह गई "पापा अभी आये है, खाना खाकर आपसे मिलने आएंगे "

सोहनलाल वहीँ बैठे रहे। कुछ देर बाद फिर कुछ यादें चलचित्र की तरह उनकी आँखों के सामने घूमने लगी।

"पापा आपने खाना खा लिया क्या ?" उनके बेटे सरीन ने कमरे में दाखिल होते हुए सोहनलाल से पूछा।
"अरे आ गए तुम लोग पार्टी से ?" अपने  बेटे, बहु और बच्चों को देख कर ख़ुशी जताते हुए पूछा।
"दादाजी मैंने दो-दो आइसक्रीम खाई।" सोनू ने अपने दादाजी के पास आते हुए बड़ी ही ख़ुशी से कहा।
"और दादाजी मैंने तीन आइसक्रीम खाई। " उनकी पोती ने भी चहकते हुए कहा।
"अरे बाप रे, इसका मतलब तुम दोनों ने खाना नहीं खाया सिर्फ आइसक्रीम ही खाई। सोहनलाल ने चुटकी लेते हुए कहा।
तभी उनके बेटे सरीन ने बीच में दखल अंदाज़ी करते हुए कहा "चलो अब बातें कल करना कपडे बदलो और सो जाओ व दादाजी को भी सोने दो। "
"पर पापा कल तो छुट्टी है। " नन्हे सोनू ने तपाक से उत्तर दिया। 
"छुट्टी है तो रात के बारह बजे तक जागते रहोगे ? चलो दादाजी के साथ अब सुबह खेलना। " सरीन ने कहा।
"कल सुबह तो मुझे बाहर जाना है " सोहनलाल ने अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहा "मेरा एक मित्र है उसीकी लड़की के लिए लड़का देखने जाना है, वह मुझ पर बड़ा ही ज़ोर डाल रहा है कि मैं भी उसके साथ चलूँ।"
"तो पापा आप को अब सोजाना चाहिए, इनका बस चले तो ये पूरी रात ना सोने दें।" फिर दोनों बच्चों की तरफ देखते हुए बोले "चलो अब दादाजी को भी सोना है।"
"दादाजी गुड नाइट, आप जल्दी आना " नन्हे सोनू ने कहा तो सोहनलाल बस मुस्कुराते रहे।

सुबह होते ही सोहनलाल अपने मित्र के साथ दुसरे शहर जाने के लिए निकल गए।

सुबह करीब दस बजे का समय था सोहनलाल अपने मित्र के साथ लड़के वालों के घर बैठे थे कि तभी लड़का बद हवासी में दौड़ता हुआ वहाँ आते हुए बोला " अंकल आपके शहर में बड़ा भारी भूकम्प आया है काफी जान माल का नुक्सान हुआ है।  इस समय टीवी पर यही न्यूज़ चल रही है।
सुनते ही सोहनलाल व उनके मित्र के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
सोहनलाल ने तुरंत अपने फ़ोन से अपने बेटे का फोन लगाया, मगर लाइन नहीं जा रही थी।
कई बार प्रयत्न करने पर भी जब फोन नहीं लगा तो घबराये से सोहनलाल ने अपने मित्र की तरफ देखा, वह भी अपने घर संपर्क करने की कोशिश कर रहा था।
"यार मेरा दिल बहुत घबरा रहा है, हमें तुरन्त ही यहाँ से चलना चाहिए। "  सोहनलाल ने कहा
"हाँ चलो। " उनके मित्र ने भी हामी भरी तो दोनों ही बदहवासी सी हालत में भाग लिए।


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घर के पास पहुँचते ही जब सोहनलाल ने सामने का दृश्य देखा तो उनकी टाँगे कांपने लगीं, दिल बैठने लगा व उनका पूरा शरीर ठंडा पड़ गया। एक कदम बढ़ाना भी उनके लिए मुश्किल हो रहा था , उनका पूरा  घर ही नहीं बल्कि अड़ोस पड़ोस के घर भी ध्वस्त हो चुके थे। तभी पास ही से गुज़रते रेस्क्यू ऑपरेशन के एक जवान से कुछ जानकारी लेने की कोशिश की तो उसने बताया "घर में जो लोग थे उनके बचे होने की  उम्मीदें तो बहुत ही कम हैं, जो घर से बाहर थे वही बच गए होंगे।" कहता हुआ वह जवान आगे बढ़ गया।
सुनते ही सोहनलाल की रही सही हिम्मत भी खत्म हो गयी।
वह वहीँ बेहोश होकर गिर गए।

जब उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक हस्पताल में पाया।
अपने आप को संभालते हुए वह फिर अपने घर की तरफ चल दिए। जब वह घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि काफ़ी मलबा हटाया जा चूका था व कुछ शरीरों को मलबे में से निकला जा चूका था।  जितने भी शरीर मलबे से निकले गए थे उनमे कोई भी जीवित नहीं था। उन पारथिव  शरीरों को एक जगह पर सफ़ेद कपडे से ढके हुए थे।

हिम्मत करके सोहनलाल आगे बढे व मुह पर से कपडा हटा हटा कर अपनों  को ढूंढने लगे।  बड़ी हिम्मत चाहिए और सोहनलाल को भी अपनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी। तभी अचानक उनके मुंह से चीख निकल गई, शव उनके बेटे का था। कुछ ही देर में उनके परिवार के सारे शव मिल गए, कोई भी जीवित नहीं था। सोहनलाल का जी चाह  रहा था कि वह दहाड़ें मार मार के रोएँ। वह बिलकुल अकेले रह गए थे।
वह रोते हुए चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे कि  "उनके पोता और पोती ने रात को कहा था 'दादाजी आप जल्दी वापस आना, फिर हम खेलेंगे ' अब मैं आ गया हूँ तो  वह बोल ही नहीं रहे " वह अपना दिमागी संतुलन खो चुके थे   व पागलों की तरह बाते कर रहे थे।
राजीव से उनका यह दर्द देखा नहीं गया और वह उन्हें अपने घर ले आये। तभी से सोहनलाल की पूरी ज़िम्मेदारी उन्होंने उठा ली थी व उनका ध्यान पूरी तरह अपने ही घर के किसी बुज़ुर्ग सदस्य की तरह रखते थे।

खाना खा कर जब राजीव कमरे में आया  तो उसने देखा सोहनलाल खाने की टेबल पर ही सर रख कर सो गए हैं। राजीव ने पास आते हुए जब उन्हें उठाने के लिए उनके कंधो को हिलाया तो उनका शरीर एक तरफ लुढक गया। घबराये से राजीव ने जब उनके शरीर को चेक किया तो पाया वह एकदम ठंडा पड़ गया था।

सोहनलाल ने उस भूकम्प में अपने पूरे परिवार को खो दिया था वह बिलकुल ही अकेले रह गए थे। मगर जब तक ज़िन्दगी थी जीना तो था। क्यूंकि मांगे से अगर मौत मिल सकती तो शायद दुनिया में कोई भी दुःख नहीं झेलता। उन्हें भी न चाहते  हुए भी ज़िंदगी तो जीनी पड़ी थी।
लेकिन आज वह भी चल दिए अपने बिछड़े परिवार से मिलने।

कितना मुश्किल हो जाता है किसी हादसे में अपने पूरे परिवार को खो देना और संसार में बिलकुल अकेले रहना। सिर्फ यादें ही होतीं हैं जिनके सहारे ज़िन्दगी चलती रहती है।

Romy Kapoor (Kapildev)


Saturday, February 7, 2015

माली

"पापा मैं नौकरी करने के लिए दुबई जाना चाहता हूँ, यहां की कंपनी बंद होने के बाद मैंने बहुत जगह पर कोशिश की मगर कहीं नौकरी नही मिल रही।" प्रवीण ने रात का खाना खाने के बाद जब अपने पिता सूरजप्रकाश से कहा तो वह कुछ देर तक आँखे फाड़े उसे देखते रहे।

"दुबई ?" सूरजप्रकाश ने कुछ देर रूककर बोलना शुरू किया "बेटा, तुम्हे तो पता है एक छोटी सी परचून की दुकान है, दो वक़्त की रोटी भी बड़ी मुश्किल से निकलती है और जब से तुम्हारी नौकरी गई है तबसे तो बड़ी ही दिक्कत हो रही है, दुबई जाने का पैसा कहां से आएगा ?"


"पापा अगर मैं दो तीन साल दुबई लगा कर आ गया तो मेरी लाइफ बन जाएगी और हमारी यह पैसों की दिक्कत भी खत्म हो जाएगी। " प्रवीन ने अपने पिता को समझाते हुए कहा।


"मगर इतना पैसा आएगा कहां से ?"


"पापा आप कुछ भी करो, कहीं से उधार लेलो, मैं वहां से कमा कर आऊंगा तो आपको लौटा दूंगा तो आप उधार चुकता कर देना। " प्रवीन ने अपने पिता को समझाते हुए कहा तो सूरजप्रकाश कुछ देर युहीं शुन्य में देखते रहे फिर बोले

"लेकिन कौन देगा इतना पैसा ?"

"पापा इस मकान को गिरवी रखदो।" प्रवीन एक ही सांस में कहने के बाद अपने पिता की प्रतिक्रिया देखने लगा।


"क्या ?" फटी आँखों से सूरजप्रकाश ने प्रवीन की तरफ देखा।

"पापा, सिर्फ दो साल की तो बात है मैं वहां से इतना पैसा कमा कर लाऊंगा कि हमारा मकान तो हमारा हो ही जायेगा, हमारी सारी तकलीफें भी दूर हो जाएँगी।"

"मुझे थोड़ा समय दो सोचने का मैं सुबह तक बताऊंगा तुम्हे। मगर बहु और तुम्हारा बेटा शौर्य ?"


"पापा वह आपके साथ ही रहेंगे ताकि आपका भी मन लगा रहे।" प्रवीण ने अपने पिता के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

पूरी रात सूरजप्रकाश सो नहीं पाये।  उन्होंने बड़ी ही मुश्किलें झेल कर प्रवीन को पढ़ाया लिखाया था। पत्नी के गुज़र जाने के बाद एक उसी का सहारा था, अपने पोते शौर्य के साथ उनका समय कहां गुज़र जाता इसका उन्हें पता ही नहीं चलता।  अब एक तरफ अपने इकलौते बेटे के भविष्य का सवाल था तो दूसरी तरफ मकान ! वह निर्णय नहीं ले पा रहे थे।


सुबह नाश्ता करते हुए प्रवीन के पूछने पर सूरजप्रकाशने कहा

"ठीक है, मैं मकान को गिरवी रख कर पैसों का इंतेज़ाम करता हूँ , मगर ध्यान रहे कि यह मैं सिर्फ तुम्हारे सुनहरे भविष्य की खातिर कर रहा हूँ।" सूरजप्रकाश ने प्रवीन की तरफ देखते हुए कहा।
"पापा आप चिंता ना करें। " कहता हुआ वह अपने पिता के गले लग गया।

कुछ दिन युहीं गुज़र गए।  सूरजप्रकाश ने अपना मकान गिरवी रख दिया और उससे दो साल में सारे पैसे देकर मकान को छुड़वाने का वायदा किया। तबतक सूरजप्रकाश अपनी बहु और पोते के साथ उसी मकान में रह सकते थे। दो साल की मियाद पूरी होने पर पूरा पैसा ब्याज सहित नहीं लौटा पाने पर उन्हें वह मकान खाली करना होगा, इन्ही शर्तों पर उन्होंने अपना मकान गिरवी रख दिया था। 


"प्रवीन, तुम्हारी मां इसी माकन में  पहली बार जब आई थी तब वह बहुत ही खुश थी, उसने अपनी पूरी ज़िन्दगी यहां बिताई और दम भी इसी माकन में तोडा। मैं चाहता हूँ कि जिस घर के साथ तुम्हारी मां की इतनी यादें जुडी हुईं हैं, मेरा दम भी उसी घर में निकले। मैं चाहता तो नहीं था इस माकन को गिरवी रखना मगर तुम्हारे सुनहरे भविष्य की खातिर मैंने यह कदम उठाया है , इसलिए कि तुम खूब पैसा कमा कर आओ। " सूरजप्रकाश ने प्रवीन के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा।

"पापा आप चिंता नहीं करो मैं आपको निराश नहीं करूँगा।" प्रवीन ने पिता को विश्वास दिलाते हुए कहा।


प्रवीण की पत्नी सरोज भी बहुत खुश थी, मगर उसे इस बात का भी ग़म था कि उसे इतना लम्बा समय अपने पति से दूर रहना होगा।

"उदास क्यों होती है ? मैं तेरे लिए बहुत पैसे कमा कर लाऊंगा और फिर तुझे रानी बना कर रखूँगा।" प्रवीण ने अपनी पत्नी के चेहरे की उदासी को देखते हुए कहा। "तुम्हारे पास तो शौर्य भी होगा, तुम्हारा मन लगा रहेगा, मैं तो वहां अकेला ही होऊंगा, अगर तुम इस तरह मायूस होगी तो मेरा जाना मुश्किल होगा, इसलिए मुस्कुराओ और मुझे अच्छी सी चाय बना कर पिलाओ।"

नन्हा शौर्य पास ही खेल रहा था, सारी बातों से अनजान, ना किसी के आने का पता न किसीके जाने का।


आखिर वह दिन भी आ गया, आज प्रवीन दुबई जा रहा था। परिवार के इलावा उसके कई दोस्त भी एयरपोर्ट पर बिदा करने आये थे, प्रवीन ने अपने बेटे शौर्य को गोद में उठा रखा था, उसकी पत्नी उसकी बगल में खड़ी थी, आँखें भरी हुईं व चेहरे पर उदासी, पास ही सूरजप्रकाश भी खड़े थे।


अनाउंसमेंट होने पर प्रवीन अपने पिता के पांव छूते हुए बोला

"पापा मैं आपका यह एहसान ज़िंदगी भर नहीं भूलूंगा, मैं बहुत जल्दी  ही आपका क़र्ज़ उतार दूंगा। 

"सूरजप्रकाश ने अपने बेटे को गले लगा लिया, गला भरा होने की वजह से वह कुछ बोल नहीं पाये।


"सरोज अपने ये आंसू पोंछ लो, दो साल  तो बस  युहीं गुज़र जायेंगे, शौर्य का ध्यान रखना।" सरोज के पास आते हुए प्रवीन ने कहा। 

प्रवीण चला गया।

सूरजप्रकाश अपनी बहु और पोते के साथ घर वापस आकर यु ही गुमसुम से बैठ गए।


"बहु प्रवीन के जाने के बाद घर कितना सूना सूना लग रहा है ?" फिर कुछ देर युही शुन्य में देखते रहने के बाद बोले "बिलकुल शौर्य जितना था, जब भी मैं दुकान जाने के लिए निकलता तो रोने लगता, कहता मुझे भी साथ जाना है, बड़ी मुश्किल से उसकी मां उसका ध्यान दूसरी तरफ लगाती तब कहीं जा कर मैं निकल पाता था। 


कई बार तो उसकी मां को इतना तंग करता कि वह उसे दुकान पर ही ले आती, दुकान पर कभी चॉकलेट, कभी बिस्कुट तो कभी बुढ़िया के बाल, बड़ी ही मस्ती करता था, मेरी तो जान था, पता ही नहीं चला वो कब बड़ा हो गया, इतना बड़ा हो गया कि अकेला दुबई भी चला गया !" सूरजप्रकाश ने अपनी भीगी आँखों को पोंछते हुए कहा।

सरोज भी उदास थी, शौर्य पास ही में सोया हुआ था।



समय बीतता रहा, प्रवीन को दुबई गए पूरा एक वर्ष बीत गया था, पहले तो वह रोज़ ही फोन करता था मगर वह सिलसिला धीरे धीरे कम होता गया और अब तो महीने में एकाध बार उसका फोन आ जाता था, उसने कुछ महीने पैसे भी भेजे मगर अब वह भी भेजने बंद हो गए थे। सूरजप्रकाश को अपनी छोटी सी दुकान से तीन लोगो का खर्च चलाना भी मुश्किल हो गया था।  कई बार उन्हें किसी न किसी से थोड़ा बहुत उधार भी लेना पड़ता था। वह इस बात से परेशान तो थे ही।

इसी तरह दो साल बीत गए, आखिर वो दिन भी आ गया जब प्रवीन घर वापस आ रहा था। सूरजप्रकाश, सरोज व शौर्य को लेकर एयरपोर्ट पहुँच गए थे।


"सरोज। …पापा ! प्रवीन एयरपोर्ट से  बाहर  निकलते  हुए अपनी पत्नी और पिता को देखते ही दूर से ही चिल्लाया।

सूरजप्रकाश अपने बेटे को देख कर बहुत ही खुश थे।  पास पहुंचते ही उन्होंने अपने बेटे को गले लगा लिया।  शौर्य को देख कर परवीन ने उसे गोदी  में उठाते हुए कहा "अरे शौर्य कितना बड़ा हो गया ?"

सूरजप्रकाश देखकर बहुत ही खुश थे, उन्हें लग रहा था जैसे प्रवीन के आने के साथ उनका अधूरा परिवार फिर पूरा हो गया था, कमी थी तो सिर्फ उनकी पत्नी की।


प्रवीन को वापस लौटे पूरा एक हफ्ता बीत गया था, सूरजप्रकाश रोज़ इसी उम्मीद में रहते कि शायद आज प्रवीन पैसों के बारे में उनसे कोई बात करेगा, मगर अभीतक उसने कोई भी बात नहीं की थी। एक रात सूरज प्रकाश ने खुद ही बात छेड़ते हुए प्रवीन से पूछा

"बेटा वो पैसे कब लौटाओगे ? अब तो एक दो दिन में देनदार भी पैसे मांगने आ जायेगा, और पैसे नहीं देने पर तो घर खाली करना पद सकता है।"

प्रवीण ने अपनी पत्नी को देखा, कुछ देर चुप रहने के बाद बोला

"ठीक है पापा दो तीन दिनों में मैं इसका कोई रास्ता निकालता हूँ।" कहता हुआ वह दूसरे कमरे में चला गया, सरोज भी उठ कर उसके पीछे पीछे चलदी।

बात वहीं ख़त्म हो गई, सूरजप्रकाश के चेहरे पर चिंता के भाव साफ नज़र आ रहे थे, किन्ही गहरी सोचों में डूबे वह कब सो गए पता ही नहीं चला मगर प्रवीन और उसकी पत्नी रात देर तक ना जाने क्या खुसुर फुसुर करते रहे।


दो दिन बाद सूरजप्रकाश रात का खाना खा कर बैठे थे कि प्रवीन ने कहा

"पापा हम कल सुबह बाहर जा रहे हैं, आप अपना बैग तैयार कर लेना, कपडे व अन्य ज़रूरी सामान रख लेना।"
"मगर बेटा हम जा कहां रहे रहे हैं ?" सूरजप्रकाश ने पूछा।
"पापा पैसों का इन्तज़ाम करना है ना, जल्दी ही आ जायेंगे।" प्रवीण बोला।

"पैसों का इन्तज़ाम ? मैं कुछ समझा नहीं। "

"पापा मैं आप को सब समझा दूंगा, आप बस सुबह तैयार हो जाना। "
"ठीक है मगर जाना कितने बजे है ?" सूरजप्रकाश ने पूछा तो उनकी आवाज़ में एक छिपा हुआ भय भी था।
"बस यही कोई १०-११ बजे। "
सूरजप्रकाश सो गए।

सुबह उठते ही सूरजप्रकाश ने अपना बैग तैयार कर लिया।नहा धोकर नाश्ता करके बैठे ही थे कि प्रवीन ने पूछा

"पापा आप तैयार हैं ? चलें ?"
"हाँ तैयार तो हूँ मगर हम जा कहां रहे हैं और कितने दिन के लिए जा रहे हैं?"
"पापा क्या आप को मुझ पर भरोसा नहीं है ?"
"बेटा इस बुढ़ापे में तुम्हारे भरोसे ही तो जी रहा हूँ,  मगर शौर्य से तो मिला नहीं, वह तो स्कुल गया हुआ है।"
"उसे तो आने में अभी काफ़ी टाइम है, हम लेट हो जायेंगे।" प्रवीन बोला और उठ कर ऑटो लेने चल दिया।  
ऑटो में बैठते हुए जब सरोज ने अपने ससुर के पाँव छुए तो उन्होंने ढेर सारा आशीर्वाद देते हुए कहा
"बेटा सदा खुश रहो, बहुत सारा सुख मिले तुम्हे, शौर्य भी पढ़ लिख कर बड़ा आदमी बने और बहुत साड़ी खुशियाँ  दे तुम लोगों को, शौय से कहना मैं आते हुए उसके लिए बहुत सारी चॉकलेट लाऊंगा,उसे ढेर सारा प्यार देना मेरी तरफ से।" कहते हुए उनकी आँखों से आंसू बाह निकले।
अॉटो चल पड़ा, सूरजप्रकाश मुड़ मुड़ कर काफी दूर तक पीछे देखते रहे।

करीब चालीस मिनट बाद ऑटो एक स्थान पर रुका, यह शहर से दूर एक जगह थी। ऑटो से उतर कर बड़ी ही उत्सुकता से सूरजप्रकाश चारों तरफ देखते रहे, चारों तरफ खेतों के बीच में एक कोठी नुमा मकान था। मकान के अंदर दाखिल होते ही प्रवीन ने एक बेंच की तरफ इशारा करते हुए कहा "पापा आप यहाँ बैठिये मैं अभी आता हूँ।" कहता हुआ वह सीढियाँ से ऊपर की तरफ चला गया।


सूरजप्रकाश यह सब बड़े ही अचरज से देख रहे थे। सामने लॉन  में चार पांच बूढ़े पुरुष व दो महिलाये बैठे बातें कर रहे थे। वह भी बड़ी ही उत्सुकता से सूरजप्रकाश की तरफ देख रहे थे।


करीब दस मिनट बाद प्रवीन आया और सूरजप्रकाश का बैग उठाते हुए बोला "आइये पापा " पहली मंज़िल पर जा कर एक कमरे में एक बेड के ऊपर उनका बैग रखते हुए बोला "बैठिये।"सूरजप्रकाश ने नज़रें घुमा कर देखा, वहां करीब दस बेड लगे हुए थे, वहां बाकी के नौ पर कुछ न कुछ सामान रखा हुआ था, पांच बेड पर कुछ बूढ़े आदमी सोये हुए थे।

"बेटा यह क्या है ?" प्रवीन की तरफ नज़रें घुमा कर देखते हुए उन्होंने पूछा।


"पापा वो.........."
"नहीं बोल पा रहे हो ?" दरवाज़े से अंदर प्रवेश करते हुए एक व्यक्ति जिसकी उम्र करीब चालीस के आस पास की रही होगी, ने प्रवीन की तरफ देखते हुए पूछा। फिर वह सूरजप्रकाश की तरफ मुखातिब होता हुआ बोला "मेरा नाम देवेन्द्र पारीख है, मैं यहाँ का ट्रस्टी हूँ, यह "ओल्ड ऐज होम" है, लोग यहाँ अपने बूढ़े मां बाप को छोड़ जाते हैं।"
"ओल्ड ऐज होम ?" बड़े ही अचरज से सूरजप्रकाश ने प्रवीन की तरफ देखते हुए कहा "बेटा यहां क्यों लाये हो मुझे ?"

"पापा थोड़े दिनों में मकान का इन्तज़ाम हो जायेगा तो मैं आपको यहां से ले जाऊंगा।" प्रवीण ने सर झुकाये हुए ही उत्तर दिया।


"मकान का इंतज़ाम ? मतलब ? तुम तो मुझे पैसे देने वाले थे ? उस मकान को गिरवी रख कर मैंने तुम्हे परदेश भेजा था, तब तुमने मुझे कहा था कि तुम वापस लौटते ही मुझे  पैसे लौटा दोगे और वह मकान छुड़वा लोगे।"


"पापा मैंने आपसे कहा ना मैं जल्द ही आपको यहां से लेजाऊँगा।" प्रवीन नज़रें नहीं मिला पा रहा था।

"बेटा मैंने तुम्हे पाल पोस कर बड़ा किया, तुम्हे परदेश भेजा ताकि तुम्हारा भविष्य बन जाए और तुम मुझे यहां ले आये ?" सूरजप्रकाश का गला भर आया, वह कुछ बोल नहीं पा रहे थे, आँखों से आंसू छलक आये।

देवेन्द्र पारीख ने उनके कंधे पर हाथ रखते हुए कहा

"आप धीरज रखिये, यहां हमारी तरफ से आपको कोई तकलीफ नहीं होगी, आपके अपने तो यहां नहीं होंगे मगर यहां सभी एक दूसरे के साथ बड़े ही स्नेह से रहते हैं।" कुछ देर रुक कर वह फिर बोला "हमारे मम्मी पापा ने हमें पाल पोस कर बड़ा किया था लेकिन जब हमारी बारी आई उनकी सेवा करने की तब वह इस दुनिया से चले गए थे। दोनों का एक कार एक्सीडेंट में निधन हो गया था, तभी से हम दोनों भाइयों ने यह ओल्ड ऐज होम खोल दिया और अब आप जैसे बेसहारा लोगों की सेवा कर के हमारे मन को बड़ा ही सुकून मिलता है।"
प्रवीन चुप था नज़रें झुकी हुईं थीं।

सूरजप्रकाश ने प्रवीण की तरफ देखते हुए कहा

"बेटा मैं तुम्हारे घर का सारा काम करदूंगा, झाड़ू, बर्तन, पोंछा , सब कुछ, मैं तुमसे पैसे भी नहीं मांगूगा, मगर मुझे परिवार से अलग मत करो, मुझे शौर्य से दूर मत करो, अभी तो मैंने शौर्य को ठीक से खिलाया भी नहीं। " सूरजप्रकाश ने हाथ जोड़ कर गिड़गिड़ाते हुए प्रवीण से कहा।

"पापा आप समझते क्यों नहीं ?" प्रवीण ने झल्लाते हुए कहा। मैंने आपसे एक बार कहा तो है कि मैं आपको जल्द ही यहां से ले जाऊँगा।" 


अपने सारे प्रयासों के बाद भी जब प्रवीन नहीं माना तो सूरजप्रकाश अपने घुटने टेक दिए।  अपनी आँखों के आंसू पोंछते हुए अपनी जेब में हाथ डाला और सौ रुपये का एक नोट निकाल कर प्रवीन के हाथ में थमाते हुए बोले 

"ठीक है बेटा, ये लो सौ रपये, मैं शौर्य को तो मिला नहीं था, उसके लिए कुछ चॉक्लेट्स ले जाना, वो खुश हो जायेगा, अब मैं तो जा नहीं रहा तो तुम ही मेरी तरफ से शौर्य के लिए चॉक्लेट ले जाना, वो बहुत खुश हो जायेगा, मेरी तरफ से ढेर सारा प्यार देना उसे, ध्यान रखना उसका। " कहते हुए सूरजप्रकाश की आँखें भर आईं। 
"पापा मैं ले जाऊंगा, इसे आप अपने पास ही रखिये आपको ज़रूरत पड़ेगी। "

"मुझे अब इसकी क्या ज़रूरत ? यहां से खाना मिल ही जायेगा। "

अपने हाथ में सौ का नोट लेते हुए प्रवीन बोला "अच्छा पापा अब चलता हूँ। "


"बेटा शाम को घर जल्दी आ जाया करना, शौर्य और बहु घर पर पूरा दिन अकेले रहेंगे, अपना ध्यान रखना और काम काज में ध्यान लगाना, भगवन तुझे बड़ी तरक्की दे।" अपनी आँखों को पोंछते हुए फिर बोले "बेटा अगर तुमने घर पर ही बोल दिया होता तो तुम्हारी मां की फ़ोटो ही ले आता अकेले बैठे उसीसे बातें कर लेता।" कहते कहते उनकी आँखों से आंसू टपकने लगे। 

प्रवीण ने एक बार उनकी तरफ देखा और पलट कर सीढियाँ उतरने लगा। सूरजप्रकाश भी घबराये से उसके पीछे भागे। प्रवीण बिना रुके ही मुख्य द्वार से बाहर निकल गया। सूरजप्रकाश मुख्य द्वार पर ही रुक गए, शायद अब यही उनकी सीमा बन गयी थी, प्रवीन को जाता देख भर्राई आवाज़ में ज़ोर से चिल्लाये "शौर्य को लेकर आना एक बार मिलवाने के लिए।"



उनकी आंखें आंसुओं से भरी पड़ी थीं, दिल चाह  रहा था कि दहाड़ें मार मार के रोएँ, दूर जाते प्रवीन की तस्वीर भी अब धुंधली सी दिखाई दे रही थी।  बेबस से वहीँ बैठ गए, घुटनों के ऊपर अपना सर रख दिया और सिसक सिसक कर रोते रहे, न जाने कब तक ?

प्रवीन के बचपन की यादें उनके ज़हन में घूम रही थीं, जब वह उसे दुकान भी नहीं जाने देता था, वही आज उन्हें खुद यहां छोड़ गया।  
एक माली जिसने सींच कर एक पौधे को बड़ा किया, आज माली अकेला खड़ा था, ना उस पेड़ की छाया थी और ना ही उसका सहारा। 
जिस बेटे के सुन्दर भविष्य के लिए उन्होंने अपने घर को गिरवी रख दिया, वही बेटा उन्हें घर से बे घर कर गया !  

क्यों होता है ऐसा ? 

क्यों ओल्ड ऐज होम की संख्या इतनी बढ़ती जा रही है ? 
क्यों आजकल के बच्चे अपने मां बाप को पाल नहीं सकते, उन्हें जिन मां बाप ने उन्हें पाल पोस कर इतना बड़ा किया ?
क्यों एक माली, जिसने एक बाग़ को इतने सालों सींचा, उसे ही अपने बाग़ से बाहर निकाल दिया जाता है ?
क्या इसका कारन सोशियल सिक्योरिटी का ना होना हो सकता है ?

क्या ये मुद्दा सरकार के लिए एक चेतावनी नहीं है ?


Romy Kapoor (Kapildev)