Monday, February 23, 2015

यादें


               



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"अरे बेटा सोनू अपनी बहन के साथ लड़ क्यों रहा है ? तुम्हारी बड़ी  बहन है , हर समय उससे लड़ता रहता है। " अपनी बूढी आँखों पर गांधी चश्मा, जो की सरक  कर  नाक पर आ गया था, उसी को अपने दाहिने हाथ की बीचवाली ऊँगली से ठीक करते हुए सूरजप्रकाश ने अपने पोते को हल्का  सा डांटते हुए कहा।

"दादाजी देखोना ये बिल्ली मेरी चॉकलेट नहीं दे रही" सोनू ने बड़े ही भोलेपन से अपने दादाजी के पास आकर शिकायत भरी आवाज़ में कहा।
"बेटी प्रीति तुम देदो अपने छोटे भाई की चॉकलेट, तुम तो बड़ी हो ना, मैं तुम्हे कल और ला कर दूंगा। " सूरजप्रकाश ने अपनी पोती को समझाते  हुए कहा।
"दादाजी उसने पहले मेरी दो चॉकलेट खाई। " प्रीति ने भी अपनी आँखों को मलते  हुए दादाजी से शिकायत की।
"कोई बात नहीं बेटा वो छोटा है तुमसे, मैं तुम्हे कल बहुत सारी चॉकलेट ला दूंगा, फिर हम इस बदमाश को एक भी चॉकलेट नहीं देंगे। "
"ठीक है दादाजी " कहते हुए उसने अपनी  हथेलियों में दबा कर रखीं दोनों चॉकलेट अपने छोटे भाई की तरफ फेंक दी।
"बेटा गन्दी बात, ऐसे फेंक कर किसी को चीज़ नहीं देते।  सॉरी बोलो।"
"सॉरी भुख्खड़। " कहते हुए उसने जीभ निकाल कर चिढ़ाने लगी।
"दादाजी देखो ना मुझे भुख्खड़ कहती है। "
लेकिन सूरजप्रकाश मंद मंद मुस्कुराते हुए दोनोंकी इस मीठी सी नोंक झोंक का मज़ा ले  रहे थे। बस इन्ही बच्चों में उनका पूरा दिन कहां व्यतीत हो जात पता ही नहीं चलता था।  
तभी दरवाज़े पर हो रही दस्तक ने सूरजप्रकाश को चौंका दिया, लगा जैसे किसी गहरी नींद से जाग उठे हों। पहले नाक पर सरक आये चश्मे को ऊँगली से ऊपर किया , चौंक कर कमरे में नज़रें घुमाई वहां न तो निशा थी और ना ही सोनू। उनके चेहरे पर मायूसी सी छा गयी उसी मायूसी के साथ उन्होंने  फिर दरवाज़े पर नज़रें टिका दीं। दरवाज़े पर फिर से ज़ोर की थपथपाहट हुई। उन्होंने अँधेरे में ही दिवार को टटोलते हुए लाइट का स्विच ओन किया, कमरे में रौशनी होते ही फिर अपने चश्मे  को अपनी कांपती ऊँगली से नाक से ऊपर करते हुए घडी की तरफ देखा जो रात के साढ़े आठ का समय दिखा  रही थी। सोहनलाल धीरे धीरे चलकर  दरवाज़े तक पहुंचे और हलके  से दरवाज़ा खोल दिया।  
"अरे अंकल सो गए थे क्या ? मैं कबसे दरवाज़ा खट खटा  रही हूँ। "
दरवाज़ा खोलते ही एक हाथ में खाने की थाली लिए करीब १५-१६ साल की लड़की ने कहा।
निशा नाम था उसका और वो सोहनलाल के पड़ोस में रहती थी।
"बेटी मैंने तुझे कितनी बार कहा, तेरे पापा से और मां से भी कहा कि रोज़  मेरे लिए इतनी तकलीफ ना किया करें, मैं खा लिया करूँगा कुछ भी।" सोहनलाल ने हलके से झिड़की देते हुए कहा। मगर वह दिल में ये जानते थे कि उनकी इन बातों का कोई भी असर नहीं होने वाला था।
"बाबा आप हटिये, जा बेटी तू अंदर जा कर टेबल पर खाना रख दे, ये तो इनका रोज़ का काम है।" पीछे से निशा की मां ने आते हुए कहा। चलिए बाबा टेबल पर खाना रख दिया है, चल कर खाना खा लीजिये। " सोहनलाल का हाथ पकड़ कर उन्हें धीरे से कमरे में लेजाते हुए कहा।
"बहुत ही ज़िद्दी हो तुम, मेरी तो एक भी बात नहीं मानती। " सोहनलाल ने मुस्कुराते  हुए कहा।
सोहनलाल को धीरे से कुर्सी पर बैठाते हुए बोली "हां सुनूंगी पहले आप आराम से बैठ कर खाना खा लीजिये, मैं अभी थोड़ी  देर में आकर बर्तन ले जाउंगी। " फिर अपनी बेटी निशा की तरफ देखते हुए बोली "चल बेटी बाबा को आराम  से खाना खा लेने दे, फिर आकर बर्तन ले आना ।"
देखिये अगर आप ने थोड़ा भी खाना बचाया तो मैं इसके पापा से शिकायत कर दूँगी। " सोहनलाल को हल्का सा धमकाते हुए उसने कहा और मां बेटी  चली गई।
राजीव बत्रा नाम था निशा के पापा का और  उनके बड़े ही कड़े निर्देश थे  सोहनलाल का  पूरी तरह  से ध्यान रखने का ।

बड़ा ही ध्यान रखते थे सभी, बिलकुल अपने घर के सदस्य की तरह। राजीव खुद भी ऑफिस से आकर तबतक उनके पास बैठा रहता जबतक सोहनलाल सो नहीं जाते।

खाना सोहनलाल के सामने पड़ा था, तभी जैसे अंदर से आवाज़ आई "सुनो आप क्या कर रहे हो ? कब से खाना टेबल पर रखा हुआ है, आपको कबसे आवाज़ लगा रही हूँ , खाना ठंडा हो रहा है। " आवाज़ उनकी पत्नी  की थी।
"हां....हां सुनलिया, बच्चों को आ लेने  दो फिर साथ में बैठ कर खाना खाते हैं। " सोहनलाल ने अंदर ही से आवाज़ दी।
सुनते ही उनकी पत्नी ने सर पर हाथ मारते हुए कहा "ये लो और सुनो छत्तीस बार कह चुकी हूँ कि  वह लोग आनंद बेटे की ऑफिस के एक साथी के वहां एक पार्टी थी सो रात का खाना खा कर ही आएंगे ."
"ओहो तो फिर तुम हमारे साथ बैठ कर खाना खाओ ! " रसोई घर में पीछे से आकर अपनी पत्नी को कमर से पकड़ते हुए सोहनलाल ने कहा !
"अरे क्या कर रहे हो ? छोडो !" उनकी पत्नी सुशीला ने छट पटाते हुए कहा।
"लो छोड़ दिया !" सोहनलाल ने अपनी पत्नी को छोड़ते हुए कहा।

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"अब आप जकर टेबल पर बैठो, मैं खाना गरम कर के लाती हूँ  फिर दोनों साथ में बैठ कर खाएंगे। "
खाना खाने दोनों साथ ही बैठे थे, सोहनलाल ने एक निवाला तोड़कर प्यार से अपनी पत्नी के मुह में डाला .....!
"अरे बाबा , आपने अभीतक खाना शुरू भी नहीं किया ? क्या कर रहे हैं ? क्या सोचते रहते हैं ? निशा ने कमरे में प्रवेश करते हुए सोहनलाल को एक साथ ही कई सवाल पूछ लिए ।
सोहनलाल का निवाला खिलाने  वाला हाथ वहीँ रुक गया, वह जैसे किसी गहरी नींद से जागे।   
"बेटी मैंने अभी तुम्हारी ऑन्टी को देखा.....हम दोनों साथ में बैठ कर खाना खा रहे थे...ये देखो..." सोहनलाल ने थाली की तरफ देखते हुए कहा, मगर थाली को देखते ही उनकी आँखें फटी की फटी रह गईं, अपनी नाक पर सरक आये चश्मे को ठीक करते हुए उन्होंने निशा की तरफ देखा ।
"कहाँ से खाना खाया ? थाली तो वैसी ही पड़ी हुई है, एक भी निवाला नहीं टुटा, अब मैं यही बैठती हूँ, आप बस अब जल्दी से खाना फिनिश करो " निशा समझ गई थी कि वह फिर किन्ही यादों में खो गए थे। 
सोहनलाल के खाना खाने के बाद वह बर्तन लेकर जाते हुए कह गई "पापा अभी आये है, खाना खाकर आपसे मिलने आएंगे "

सोहनलाल वहीँ बैठे रहे। कुछ देर बाद फिर कुछ यादें चलचित्र की तरह उनकी आँखों के सामने घूमने लगी।

"पापा आपने खाना खा लिया क्या ?" उनके बेटे सरीन ने कमरे में दाखिल होते हुए सोहनलाल से पूछा।
"अरे आ गए तुम लोग पार्टी से ?" अपने  बेटे, बहु और बच्चों को देख कर ख़ुशी जताते हुए पूछा।
"दादाजी मैंने दो-दो आइसक्रीम खाई।" सोनू ने अपने दादाजी के पास आते हुए बड़ी ही ख़ुशी से कहा।
"और दादाजी मैंने तीन आइसक्रीम खाई। " उनकी पोती ने भी चहकते हुए कहा।
"अरे बाप रे, इसका मतलब तुम दोनों ने खाना नहीं खाया सिर्फ आइसक्रीम ही खाई। सोहनलाल ने चुटकी लेते हुए कहा।
तभी उनके बेटे सरीन ने बीच में दखल अंदाज़ी करते हुए कहा "चलो अब बातें कल करना कपडे बदलो और सो जाओ व दादाजी को भी सोने दो। "
"पर पापा कल तो छुट्टी है। " नन्हे सोनू ने तपाक से उत्तर दिया। 
"छुट्टी है तो रात के बारह बजे तक जागते रहोगे ? चलो दादाजी के साथ अब सुबह खेलना। " सरीन ने कहा।
"कल सुबह तो मुझे बाहर जाना है " सोहनलाल ने अपने बेटे की तरफ देखते हुए कहा "मेरा एक मित्र है उसीकी लड़की के लिए लड़का देखने जाना है, वह मुझ पर बड़ा ही ज़ोर डाल रहा है कि मैं भी उसके साथ चलूँ।"
"तो पापा आप को अब सोजाना चाहिए, इनका बस चले तो ये पूरी रात ना सोने दें।" फिर दोनों बच्चों की तरफ देखते हुए बोले "चलो अब दादाजी को भी सोना है।"
"दादाजी गुड नाइट, आप जल्दी आना " नन्हे सोनू ने कहा तो सोहनलाल बस मुस्कुराते रहे।

सुबह होते ही सोहनलाल अपने मित्र के साथ दुसरे शहर जाने के लिए निकल गए।

सुबह करीब दस बजे का समय था सोहनलाल अपने मित्र के साथ लड़के वालों के घर बैठे थे कि तभी लड़का बद हवासी में दौड़ता हुआ वहाँ आते हुए बोला " अंकल आपके शहर में बड़ा भारी भूकम्प आया है काफी जान माल का नुक्सान हुआ है।  इस समय टीवी पर यही न्यूज़ चल रही है।
सुनते ही सोहनलाल व उनके मित्र के चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगीं।
सोहनलाल ने तुरंत अपने फ़ोन से अपने बेटे का फोन लगाया, मगर लाइन नहीं जा रही थी।
कई बार प्रयत्न करने पर भी जब फोन नहीं लगा तो घबराये से सोहनलाल ने अपने मित्र की तरफ देखा, वह भी अपने घर संपर्क करने की कोशिश कर रहा था।
"यार मेरा दिल बहुत घबरा रहा है, हमें तुरन्त ही यहाँ से चलना चाहिए। "  सोहनलाल ने कहा
"हाँ चलो। " उनके मित्र ने भी हामी भरी तो दोनों ही बदहवासी सी हालत में भाग लिए।


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घर के पास पहुँचते ही जब सोहनलाल ने सामने का दृश्य देखा तो उनकी टाँगे कांपने लगीं, दिल बैठने लगा व उनका पूरा शरीर ठंडा पड़ गया। एक कदम बढ़ाना भी उनके लिए मुश्किल हो रहा था , उनका पूरा  घर ही नहीं बल्कि अड़ोस पड़ोस के घर भी ध्वस्त हो चुके थे। तभी पास ही से गुज़रते रेस्क्यू ऑपरेशन के एक जवान से कुछ जानकारी लेने की कोशिश की तो उसने बताया "घर में जो लोग थे उनके बचे होने की  उम्मीदें तो बहुत ही कम हैं, जो घर से बाहर थे वही बच गए होंगे।" कहता हुआ वह जवान आगे बढ़ गया।
सुनते ही सोहनलाल की रही सही हिम्मत भी खत्म हो गयी।
वह वहीँ बेहोश होकर गिर गए।

जब उन्हें होश आया तो उन्होंने अपने आपको एक हस्पताल में पाया।
अपने आप को संभालते हुए वह फिर अपने घर की तरफ चल दिए। जब वह घर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि काफ़ी मलबा हटाया जा चूका था व कुछ शरीरों को मलबे में से निकला जा चूका था।  जितने भी शरीर मलबे से निकले गए थे उनमे कोई भी जीवित नहीं था। उन पारथिव  शरीरों को एक जगह पर सफ़ेद कपडे से ढके हुए थे।

हिम्मत करके सोहनलाल आगे बढे व मुह पर से कपडा हटा हटा कर अपनों  को ढूंढने लगे।  बड़ी हिम्मत चाहिए और सोहनलाल को भी अपनी सारी हिम्मत जुटानी पड़ी। तभी अचानक उनके मुंह से चीख निकल गई, शव उनके बेटे का था। कुछ ही देर में उनके परिवार के सारे शव मिल गए, कोई भी जीवित नहीं था। सोहनलाल का जी चाह  रहा था कि वह दहाड़ें मार मार के रोएँ। वह बिलकुल अकेले रह गए थे।
वह रोते हुए चिल्ला चिल्ला कर कह रहे थे कि  "उनके पोता और पोती ने रात को कहा था 'दादाजी आप जल्दी वापस आना, फिर हम खेलेंगे ' अब मैं आ गया हूँ तो  वह बोल ही नहीं रहे " वह अपना दिमागी संतुलन खो चुके थे   व पागलों की तरह बाते कर रहे थे।
राजीव से उनका यह दर्द देखा नहीं गया और वह उन्हें अपने घर ले आये। तभी से सोहनलाल की पूरी ज़िम्मेदारी उन्होंने उठा ली थी व उनका ध्यान पूरी तरह अपने ही घर के किसी बुज़ुर्ग सदस्य की तरह रखते थे।

खाना खा कर जब राजीव कमरे में आया  तो उसने देखा सोहनलाल खाने की टेबल पर ही सर रख कर सो गए हैं। राजीव ने पास आते हुए जब उन्हें उठाने के लिए उनके कंधो को हिलाया तो उनका शरीर एक तरफ लुढक गया। घबराये से राजीव ने जब उनके शरीर को चेक किया तो पाया वह एकदम ठंडा पड़ गया था।

सोहनलाल ने उस भूकम्प में अपने पूरे परिवार को खो दिया था वह बिलकुल ही अकेले रह गए थे। मगर जब तक ज़िन्दगी थी जीना तो था। क्यूंकि मांगे से अगर मौत मिल सकती तो शायद दुनिया में कोई भी दुःख नहीं झेलता। उन्हें भी न चाहते  हुए भी ज़िंदगी तो जीनी पड़ी थी।
लेकिन आज वह भी चल दिए अपने बिछड़े परिवार से मिलने।

कितना मुश्किल हो जाता है किसी हादसे में अपने पूरे परिवार को खो देना और संसार में बिलकुल अकेले रहना। सिर्फ यादें ही होतीं हैं जिनके सहारे ज़िन्दगी चलती रहती है।

Romy Kapoor (Kapildev)


1 comment:

Screw it let's do it said...

A very heart touching story and so well written. I am sure who so ever has read it will not get distract and will continue reading it.

My best wishes to you for writing many more such type of stories.

Regards

Rupesh Malhotra
9312282224