Friday, August 29, 2014

रात के हमसफ़र - A Short Story
















"मामाजी जल्दी करना साढ़े सात बज चुके हैं और आठ बजे की बस है, क्यों कि समय कम है इसलिए थोड़ा तेज़ी से चलिएगा।" मैंने मामाजी से कहा तो वे मुस्कुरा कर बोले "अरे बेटा, घबराओ नहीं, तुम्हारी बस तुम्हें लिए बिना नहीं जायेगी " और उन्होंने अपनी गाडी की गति और थोड़ी बढ़ा दी।

आज मैं अहमदाबाद से मुंबई जा रही थी।  मुझे मुंबई में एक नयी कंपनी में नौकरी मिली थी, कल मुझे नौकरी ज्वाइन करनी थी। वैसे  मैं दिल्ली में रहती हूँ, लेकिन इण्टरव्यू के बाद जब मुझे कॉल लैटर मिला तो समय इतना कम था कि मुझे दिल्ली से मुंबई की सीधी रिजर्वेशन नहीं मिली, तो मैंने सोचा क्यूंना वाया अहमदाबाद ही चली जाऊं, अहमदाबाद में मामाजी भी रहतें हैं एक रात उनके साथ रह लूंगी और फिर अगले दिन शाम को मुंबई के लिए रवाना हो जाऊँगी, इस बहाने सभीसे मिलना भी हो जाएगा। सो मैं कल शाम की गाडी से अहमदाबाद पहुंची थी,पूरी रात सब के साथ बातें करने में गुज़र गई, सुबह वे लोग मुझे अहमदाबाद की सैर करवाने ले गए। गांधी रोड के तीन दरवाज़ा ने मुझे दिल्ली के चांदनी चौक की याद दिला दी, सी जी रोड,रिवर फ्रंट और फिर दोपहर को ऑनेस्ट रेस्टोरेंट की मशहूर पाँवभाजी और दोपहर बाद लॉ गार्डन से मैंने अपने लिए कुछ कपडे ख़रीदे। पूरा दिन बस यूँही गुज़र गया। मैं बहुत ही खुश थी अपने अहमदाबाद होकर मुंबई जाने के फैंसले से। ऐसा नहीं है कि में पहली बार अहमदाबाद आई थी, मगर काफी समय बाद आई थी इसलिए मुझे यह शहर काफी बदला बदला सा लग रहा था। 
"लो बेटा, पहुँच गए।" मामाजी ने कहा तो मैं दिन की यादों में से वापस लौटी। मैने गाड़ी से उतर कर बस के बारे में पूछा तो पता चला कि बस लग चुकी थी और यात्री अपनी अपनी जगह ले चुके थे, बस कुछ ही देर में बस छूटने वाली थी। मैंने मामाजी की गाड़ी से अपना बैग व अटैची उतारे, अटैची को बस की डिक्की में रखवाया और बैग को अपने पास ही रखा, फिर मैं मामाजी के पास गई उनसे गले मिली और कहा "अच्छा मामाजी चलती हूँ, यहां आकर मुझे बहुत ही अच्छा लगा, अब तो मैं मुंबई आ गई हूँ तो आती जाती रहूंगी। "
"ठीक है बेटा, अपना ध्यान रखना और पहुँचते ही फ़ोन ज़रूर करदेना, हम भी समय निकाल कर आएंगे कभी तुम्हारे पास" उन्होंने मेरे सर पर हाथ रखा और और बोले "खुश रहो बेटा" कहते हुए उनकी आँखे नाम हो गईं थीं।

मैं बस में आकर अपनी सीट पर बैठ गई। ज़्यादातर मैं खिड़की वाली सीट ही पसंद करती हूँ, क्यूंकि चाहे ट्रैन हो यां बस मुझे खिड़की से बाहर के नज़ारे देखना अच्छा लगता है।

मेरे साथ वाली सीट अभी खली थी, उसपर कोई भी नहीं आया था।  मैं दिल ही दिल में प्रार्थना कर रही थी कि कोई अच्छा सा पैसेंजर आ जाये,क्यूंकि अगर हमसफ़र अच्छा हो तो सफर अच्छा गुज़र जाता है । बस चलने वाली थी मगर अभीभी कोई आया नहीं था, अब  मैं  सोच रही थी कि काश यह सीट खाली ही जाए और मैं रात भर आराम से सोती हुई जाऊं, सीटिंग के खर्चे में स्लीपर का मज़ा ! 

बस धीरे धीरे चलने लगी थी, एक चौराहा पार करके आगे बढ़ चली थी, आहिस्ता आहिस्ता बस ने अहमदाबाद शहर पार कर लिया था और अब वह अहमदाबाद - वडोदरा एक्सप्रेस हाईवे की तरफ बढ़ रही थी तभी छब्बीस  सत्ताईस वर्षीया एक लड़का, बाल बिखरे हुए, क़द करीब पांच फ़ीट दस इंच के आस पास, रंग गोरा, और दिखने में भी स्मार्ट ही था,मेरी सीट की तरफ ही आ रहा था वह जब तक मेरी सीट तक पहुंचा तबतक मैंने उसका पूरा हुलिया चेक कर लिया था और अंदर से मैं थोड़ी खुश भी थी कि चलो पडोसी तो अच्छा मिला। मेरी सीट के पास आकर उसने हाथ वाला बैग ऊपर रखा, और फिर मेरी तरफ देखता हुआ बोला "ये मेरी सीट है। "
"हाँ तो बैठिये मैंने कब रोका है ?" मैं ऐसे रियेक्ट करने की कोशिश कर रही थी जैसे मैं बहुत ही सख्त किस्म की लड़की हूँ, क्यूंकि मैं अकेली सफ़र कर रही थी, इस लिए मुझे चौकन्नी रहना ज़रूरी था।
"थैंक गॉड" सीट पर बैठते हुए वह धीरे से बोला।
"जी ?"
"मैंने कहा भगवान तेरा लाख लाख शुक्रिया " वह बोला।
मैंने ऐसे जताया जैसे मैंने उसकी बात सुनी ही ना हो, लेकिन उसकी 
बात  का मतलब मैं समझ गई थी और मन ही मन मुस्कुरा रही थी, यह सोच कर कि शायद उसे भी अपना हमसफ़र अच्छा लगा है।  
"क्यूंकि मुझे बस जो मिल गई" वह फिर बोला तो मैंने कुछ इस तरह से मुंह बनाया जैसे उसने कोई कड़वी चीज़ मेरे मुंह में डालदी हो।   
"अगर आपको ऐतराज़ न हो तो मैं आपका यह बैग ऊपर रख दूँ , शायद आपको पाँव रखने में दिक्कत महसूस हो रही है, रास्ता लंबा है इस तरह बैठना मुश्किल होगा।" कहते ही उसने मेरे पाँव के नीचे रखा हुआ बैग खींच कर ऊपर रख दिया और इससे पहले कि मैं कुछ बोलती, उसने कहा "देखिये अब आप कम्फ़र्टेबल महसूस कर रही हैं ना।"
मैंने उसकी बात का कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप खिड़की से बाहर देखने लगी, लेकिन मैं दिल में सोच रही थी "काफी स्मार्ट बनने की कोशिश कर रहा है "

बस अहमदाबाद-वडोदरा हाईवे पर दौड़ रही थी।
"क्या आप मुंबई जा रही हैं ?" उसने पूछा
"जी हाँ " मैंने बगैर उसकी तरफ देखे ही उत्तर दिया।
"क्या आप अहमदाबाद में ही रहती हैं ?" उसने अगला सवाल दागा।
"नहीं, दिल्ली से आई हूँ, यहां मेरे मामाजी रहते हैं, उनसे मिलने आई थी।"
"मुंबई में भी किसीसे मिलने जा रही हैं ?" उसने अगला सवाल पूछा। 
"जी नहीं वहां जॉब करती हूँ। " 
"क्या आपने यहां के खमण और ढोकला खाए ?" उसने फिर पूछा। 
"नहीं"
"आपको वो तो ज़रूर खाना चाहिए था, किसीने आपसे कहा नहीं ?"
"शायद" उत्तर देने के बाद  मैं खुद झेंप गई, सोचने लगी "मैं उसके हर सवाल का उत्तर क्यों दे रही हूँ ?"
"मैं अहमदाबाद में ही रहता हूँ " मेरे बगैर पूछे ही उसने कहा।
"अब हम अहमदाबाद-वडोदरा एक्स्प्रेस हाईवे पर हैं, हालांकि बीचमें नाडियाड, आनंद और वडोदरा आएगा लेकिन यह बस वडोदरा बाय पास से सीधी  भरुच की तरफ निकल जायेगी। "
जैसे ही उसको पता चला, मैं दिल्ली से आई हूँ, वह एक गाइड की भूमिका में आ चूका था। मैं चुप थी।
तभी वह उठा बैग में से एक पैकेट निकालते हुए, मेरी तरफ़ बढ़ाया और  पूछा "लीजिये कुछ खायेंगी आप ?"
"जी नहीं शुक्रिया"

वह करीब दस मिनट तक खाता रहा। मुझे उसके खाने के तरीके से बड़ी कोफ़्त हो रही थी, मगर वह खाता रहा, मैं कुछ कहना चाहते हुए भी चुप रही।
"दरअसल चलते समय कुछ खाया नहीं था " खाने के बाद वह बोला।
तभी वह बाहर देखता हुआ बोला "हम लोग नडियाद से गुज़र रहे हैं, यहां के पापड और मठिये काफी मशहूर हैं। "
मैं सोच रही थी "क्या लड़का है, इतना खाने के बाद भी इसे खाने की चीज़ें ही याद आ रहीं हैं !"
वह बीच बीच में खिड़की से बाहर देखने के बहाने मुझे देख लेता था, और जब भी बस किसी शहर से होती हुई गुज़रती तो तुरंत ही गाइड की भूमिका में आ जाता  था। आनंद से जब बस गुज़र रही थी तो बोला "यह हम लोग आनंद बायपास से गुज़र रहे हैं, यहाँ की अमूल डेरी के बारे में तो आपने सुना ही होगा। इनके पिज़्ज़ा आजकल काफी मशहूर हो रहे हैं। लेकिन मुझे इनकी चॉकलेट बड़ी अच्छी लगती हैं, आई रियली लव चॉकलेट।  "
एक बार तो मेरे दिल में आया उससे कहदूं कि मुझे गाइड की कोई ज़रूरत नहीं है, और नाही मुझे खाने का इतना शौक है, मगर मैं चुप रही।
बस जब वडोदरा से होकर गुज़र रही थी तो बोला "यहां का लीला चिवड़ा बहुत ही प्रसिद्द है, थोड़ा गिला होता है मगर खाने में बड़ा ही टेस्टी लगता है। "
मुझे उसकी बातों पर गुस्सा भी आ रहा था, और दिल ही दिल में सोचती भी रही "इसके पास खाने की चीज़ों के इलावा करने को और कोई बात ही नहीं है?"
वडोदरा क्रॉस करके बस भरुच हाईवे पर किसी रेस्तरां पर रुकी तो उसने उठते हुए मुझसे पूछा "आप कुछ खायेंगी ?"
"जी नहीं शुक्रिया " मैंने झल्लाते हुए उससे कहा।
"अच्छा तो चाय तो पियेंगी ही ?" मेरा उत्तर सुननेसे पहले ही वह आगे बढ़ गया।
सामने रेस्तरां से उसने पहले एक चाय ली और मुझे दे गया और फिर अपने लिए शायद एक वेफर का और शायद एक बिस्किट पैकेट और एक चाय खरीदी और वहीँ सामने खड़ा होकर खाने लगा। मैं चाय की चुस्कियां लेते हुए उसे देख रही थी, दिखने में बुरा नहीं लग रहा था, ब्लू जीन्स के ऊपर हलके नीले रंग की शर्ट पहन रखी थी,पांव में स्पोर्ट्स शूज पहन रखे थे, उसे देख कर लगता था ड्रेस सेंस अच्छा था उसमें। मैं यूँही खोई हुई उसे देख रही थी तभी उसने अचानक मेरी तरफ देखा तो झेंपते हुए मैंने अपनी नज़रें दूसरी तरफ फेर लीं।  शायद उसने मेरी इस हरकत को भांप लिया था, इसीलिए वह मुझे देख कर मुस्कुरा रहा था। मैं दिल ही दिल में शर्म महसूस कर रही थी "क्यों मैं उसे इस तरह देख रही थी, वह क्या सोचता होगा मेरे बारे में ?" 

बस में वापस आकर बैठते हुए उसने पूछा "चाय कैसी लगी ? इस रेस्तरां की चाय बड़ी अच्छी होती है, मैं तो जब भी आता हूँ यहां की चाय ज़रूर पीता हूँ।" फिर कुछ रूककर बोला "अब भरुच आएगा, यहां के सिंग दाने बड़े ही मशहूर हैं "
"आप जब भी आते होंगे वहाँ के सिंग दाने भी ज़रूर लेजाते होंगे ?" मैंने आँखें निकालते हुए उससे पूछा।
"एग्ज़ॅक्ट्ली ! ये बड़े बड़े दाने, बिलकुल आप की आँखों के जैसे। "
"ए मिस्टर " मैंने गुस्से वाले अंदाज़ में कहा। वह मुस्कुरा कर चुप हो गया, और मैं खिड़की से बाहर देखने लगी। मगर मैं अंदर ही अंदर मुस्कुरा रही थी, यह सोच कर कि उसने मेरी बड़ी बड़ी आँखों की तारीफ़ की थी। मुझे लगा शायद जबसे बस में आकर बैठा था तबसे पहली कोई  काम  की बात उसने की थी। 

मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, आँखों के आगे से तेज़ी से गुज़रते नज़ारे मुझे अच्छे लग रहे थे  बाहर से आ रही ठंडी हवा मेरे बालों को उड़ा रही थी जिस वजह से मैंने अपने सर को चुन्नी से ढक लिया, मैंने महसूस किया वह बाहर देखने के बहाने मुझे देख रहा था। उसके इस तरह देखने से मुझे शर्म सी महसूस हो रही थी, मैंने नज़रें घुमा कर जब उसकी तरफ देखा तो वह बोला "कितनी खूबसूरती है। "
"जी ?"
"मेरा मतलब कितनी खूबसूरती है,नज़रें ही नहीं हटतीं" वह तुरंत ही बाहर देखता हुआ बोला।  
मैं उसके कहने का मतलब समझ रही थी इसलिए चुप रही, वह काफी देर तक इसी तरह देखता रहा। तभी बाहर की रौशनी देख कर वह बोला "शायद सूरत आ गया है, यहां की घारी बहुत ही मशहूर है, काफी घी में बनाई जाती है, इसलिए गरम करके खाने से बहुत अच्छी लगती है।" वह फिर घूम फिर कर वही खाने की बात पर आ चुका था, मैंने गुस्से से आँखें बंद करलीं और यह जताने की कोशिश करने लगी कि अब मुझे बड़ी नींद आ रही है।  
"वैसे मैं आपसे यह पूछना तो भूल ही गया कि दिल्ली में भी तो खाने की कोई चीज़ प्रसिद्द होगी ?"
"हाँ है ना " मैंने तुरंत अपनी आँखें खोलते हुए कहा।
"क्या ?"
"सैंडल " मैं तपाक से बोली।
"तब तो आप रोज़ खाती होंगी ?" उसके इस उत्तर से मैं सकपका कर रह गई और गुस्से से फिर अपनी आँखें मूंद लीं। 

करीब पंद्रह बीस मिनट बाद वह सो गया, सोते सोते उसका सर लुढक कर  मेरे कंधे  पर आ गया था और जनाब बड़े ही आराम से मेरे कंधे पर सर रख कर सो रहे थे, मुझे गुस्सा आ रहा था। मैंने पहले तो हाथ से उसका सर हटाना चाहा,मगर फिर कुछ सोच कर रुक गई और थोड़ा सा आगे की तरफ झुक गई तांकि खुद ही उसकी नींद खुल जाए, मगर मेरे आगे होते ही उसका सर लुढक कर मेरी पीठ पर आ गिरा। मैं परेशान थी, मैंने उसके सर को पीछे की तरफ धक्का मार कर दबाने की कोशिश की मग़र वह ढीठ सोता ही रहा, तंग आ कर मैंने उसे ज़ोर से झिंझोड़ा तो अपनी नींद से उठता हुआ बोला "सॉरी, आँख लग गई।" उसके बोलने के अंदाज़ से मुझे उसपर तरस आया, मगर मैं उसे ऐसे कैसे सोने दे सकती थी। 

अब मुझे भी नींद आने लगी थी और नींद में मेरा भी सर पता नहीं कब लुढक कर उसके कंधे पर गिर जाता, जब अचानक मेरी नींद खुलती तो मैं झेंप कर सीधी हो जाती। नींद के इन्हीं झोंकों में पता ही नहीं चला कब मुंबई आ गया, जब शोर गुल से मेरी आँख खुली तो मैंने पाया कि उसका सर और मेरा सर मिले हुए थे, मैं तुरंत सीधी हो कर बैठ गई।  वह भी उठ गया था, उसने खिड़की से बाहर झांकते हुए कहा "मुंबई आ गया, यहां के वड़ा पाँव ज़रूर खाइएगा बड़े ही टेस्टी होते हैं।"

मैं उसे गुस्से से देख रही थी और सोच रही थी "जाते जाते भी खाने की ही टिप दे रहा है। "
खैर, मुझे जल्दी थी, तैयार हो कर मुझे ऑफिस पहुंचना था, इसलिए बस से उतर कर मैं ऑटो पकड़  कर तुरंत ही निकल गई।  

मैंने ऑफिस के रिसेप्शन पर पहुँच कर अपना लैटर दिखाया तो मुझे कुछ देर वहीँ इंतज़ारवही करने को कहा गया, मैं सोफे पर बैठी ही थी कि तभी सामने के मुख्या द्वार से वही रात वाला लड़का अंदर दाखिल हुआ।हमारी नज़रें मिलीं और उसे देखते ही मैं ज़ोर से चिल्लाई "वड़ा पाँव ?" और मैं धप्प से वहीँ सोफे पर बैठ गई। 

Romy Kapoor (Kapildev)

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