Tuesday, November 18, 2014

Kahi-Unkahi: मुस्कान

Kahi-Unkahi: मुस्कान: सर्दियों के दिन थे , सुबह का समय था, मैं अपने बिस्तर से उठा व रोज़मर्रा की तरह भगवन को माथा टेकने के बाद अखबार की हेडलाइंस को पढ़ने लगा। क...

ही इज़ डेड - A short Story





अँधेरे को चीरते हुए सूरज की पहली किरणों ने शहर में रौशनी फैलानी शुरू कर दी थी।  कुछ लोग तो उजाला होने से पहले ही सुबह की सैर पर निकल चुके थे तो कुछ लोग अब अपने घरों से निकल रहे थे। ये वह लोग थे जिन्हें अपनी सेहत की फिक्र रहती है , तो काफ़ी लोग ऐसे भी थे जो अभीभी सो रहे थे। सुबह सुबह सड़क पर इक्का दुक्का वाहन देखने को मिल जाते थे।  लेकिन यह बात तो तय थी कि चंद घंटों में यह शहर फिर अपनी उसी रफ़्तार से दौड़ने लगेगा, जिसके लिए यह जाना जाता है।

इसी शहर के बीच में एक छोटी सी बस्ती थी जहाँ  कई झुग्गी झपड़ियां थीं। कुछ लोगों ने  बांस के ढांचों पर फटी हुई बोरियों से छत बना रखी थी और  बारिश से बचने के लिए उसके ऊपर प्लास्टिक की शीट  को पत्थर व ईंटों से दबा रखा था।  जिन के पास थोड़ा ज़्याद पैसा था उन्होंने छत पर टाट बिछाया हुआ था।  बस्ती में ज़्यादातर मज़दूर रहते थे,  जो मेहनत मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पालते थे। इसी बस्ती में धनु भी अपनी बीवी और दो बच्चों के साथ रहता था। एक हाथ   ठेला था उसके पास और पति पत्नी दोनों ही सुबह से लेकर देर शाम तक उस ठेले पर माल ढोने का काम करते थे। दिनभर में जो भी कमाते शाम को सब्ज़ी तेल व खाने की अन्य वास्तुओं पर खर्च कर देते थे, अगर किसी दिन  थोड़ी कमाई ज़्यादा हो जाती तो बचा हुआ पैसा अपनी बचत में जुड़ जाता था जो  किसी दिन कमाई कम  होने पर काम में आता था। ऐसे हमारे देश में कितने ही लोग हैं जिन्हे अपने परिवार का पेट पालने के लिए अपनी रोज़ की कमाई के ऊपर निर्भर रहना पड़ता है। चंदा रोज़ दिनभर मेहनत करने के बाद रात को घर पहुँच  कर अपने परिवार के लिए खाना बनाती थी। बच्चे  भी अँधेरा होते ही अपने माता पिता  का इंतज़ार करने लगते, कि कब वह आएंगे और कब उनको रात का खाना मिलेगा।

ज़िन्दगी इसी तरह गुज़र रही थी।

सुबह के दस बजने को थे और शहर धीरे धीरे अपनी रफ़्तार  पकड़ चूका था , लोग काम काज के लिए अपने अपने घरों से निकल चुके थे, इसी वजह से सड़क पर भी ट्रैफिक बढ़ गया था, दू पहियां व चार पहिया वाहनों की लम्बी लम्बी कतारें लगी हुईं थीं। मार्किट में कुछ दुकानें खुल चुकी थीं  तो कुछ दुकानें थोड़ी देर में खुलने वालीं थीं।

चंदा ने भी अपने दोनों बच्चों को एक एक रोटी बनाकर चाय के साथ खिला दी थी व दोपहर के खाने के लिए दो दो रोटियां व थोड़ी सब्ज़ी रख दी थी तथा अपना व अपने पति का टिफिन बांध कर तैयार कर लिया था।

'ए चंदा जल्दी कर ' धनु ने अपने ठेले को खिंच कर अपनी झोंपड़ी के सामने लाते हुए चंदा को आवाज़ दी।
'बस आई ' चलते हुए उसने अपनी बड़ी बेटी से कहा 'देख तुम दोनों की रोटी वहां रखी है , दोपहर को अपने भाई को भी  खिला देना और खुद भी खा लेना , भाई का ध्यान रखना और लड़ना नहीं। ' कहती हुई चंदा बहार निकल गयी।

सुबह जाते समय  ठेला खाली होता था इसलिए चंदा पीछे ठेले में बैठ गई और धनु एक तरफ का हथ्था पकड़ कर  ठेले को खिंच कर ले चला।  यह उनका रोज़ का रूटीन था, चूँकि जाते समय और आते समय ठेला खाली होता था इसलिए चंदा पीछे बैठ  जाती और धनु उस ठेले  को खिंच कर ले जाता था।

बाज़ार में एक बड़े व्यापारी की दुकान थी और धनु वंही उस दुकान के सामने ले जा कर अपने  ठेले  को खड़ा कर देता था। अगर उस व्यापारी के पास ज़्यादा काम न होता तो वह मार्किट में दो तीन और बड़े व्यापारियों से मिलने चला जाता, काम की तलाश में। आज सुबह से धनु  को एक दो नज़दीक की डिलीवरी का काम ही मिला था इसलिए अभीतक ज़्यादा कमाई भी नहीं हुई थी। इसी तरह दोपहर हो गई थी।  धनु ने अपने अंगोछे से पसीना पोंछते हुए चंदा से कहा 'आज तो पूरी मार्किट में सन्नाटा पसरा हुआ है किसी के पास कुछ काम ही नहीं है ' धनु ने निराशा से चंदा की तरफ देखते हुए कहा 
"चल खाना खा लेते हैं, भूख भी लगी है।" कहते हुए धनु ने अपना ठेला सड़क के एकतरफ फूटपाथ के पास लगा दिया  और दोनों  ठेले  पर बैठ कर खाना खाने लगे।

धनु ने अभी आखरी निवाला मुह में रखा ही था कि सामने मार्किट में काफी शोर गुल सुनाई देने लगा, लोग हफरा तफरी में इधर उधर भागते नज़र आ रहे थे। धनु और चंदा ने उत्सुकता से उस तरफ देखा और अपना आखरी निवाला गले से  नीचे उतारते हुए धनु ने चंदा से कहा "तुम यहीं  बैठो मैं जाकर देख कर आता हूँ" कहता हुआ धनु मार्किट की तरफ भागा।  वहां पहुँच कर उसने देखा लोग इधर से उधर भाग रहे हैं, व्यापारी अपनी अपनी दुकानों के शटर नीचे गिरा रहे हैं। घबरा के उसने एक दो लोगों से पूछा मगर सभी दौड़ने में लगे हुए थे किसीको उत्तर देने की फुर्सत नहीं थी।  तभी एक वयापारी  के वहां काम करने वाले एक  आदमी ने धनु को देखते ही कहा 
"ऐ धनु भागो यहाँ से पूरी मार्किट बंद हो गयी हे" 
"हाँ मगर हुआ क्या ?" धनु ने उत्सुकतावश पूछा  
"अरे, किन्ही दो गुटों के बीच झगड़ा हो गया है, किसीने एक आदमी को चाकू भी मार दिया है और आगे दो तीन वाहन भी जला दिए हैं।" उस व्यक्ति ने जवाब दिया और जल्दी से आगे निकल गया।

पुलिस की गाड़ियां भी अब वहां पहुंच चुकी थीं। उन्होंने  आते ही लोगों को तीतर बीतर करने की कोशिश में लाठी चलानी शुरू कर दी थी। लोग अपने अपने  घरों की तरफ भाग रहे थे।  अबतक पूरी मार्किट बंद हो चुकी थी। धनु दिल ही दिल में सोच रहा था 
"आज तो अभीतक ज़्यादा कमाई भी नहीं हुई थी" बड़ी मायूसी के   साथ वह मुड़ा और चंदा की तरफ भागा।  चंदा के पास पहुँच कर उसने कहा  "चंदा शहर में दंगा भड़क गया है और सारी मार्किट बंद हो गयी है , हमें भी घर जाना होगा, घर पर बच्चे भी अकेले हैं।" 
''मगर अभी तो …" चंदा कुछ कहना चाहती थी मगर उसकी बात को बीच में ही काटते हुए धनु ने कहा 
"और कोई चारा नहीं है कोई भी दूकान खुली नहीं है" दोनों ही के चेहरे पर मायूसी के भाव साफ़ झलक रहे थे, मगर अब वह घर की तरफ बढ़ चले थे।

शाम होते होते शहर में दंगा और भी कई जगहों में फैल गया था , रात भर बाहर सड़क पर पुलिस गाड़ियों की सायरन की आवाज़ें  आती रहीं, चंदा और धनु के चेहरे पर चिंता के भाव साफ झलक रहे थे। अगले दिन सुबह धनु उठा तो देखा बहार सड़क पर पुलिस के सिपाही गश्त लगा रहे हैं, उसने उनके पास जाते हुए एक सिपाही से पूछा तो पता चला कि दंगा काफी भड़क गया है और इसीलिए पुरे शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया है। उस रोज़ धनु और चंदा पूरा दिन घर पर ही रहे। अगले दिन कर्फ्यू में पांच घंटे की ढील दी गयी थी तो धनु और चंदा तुरंत अपने काम पर निकल गए। अभी मुश्किल से एक घंटा ही बीता होगा कि शहर में फिर दंगा भड़क उठा। पूरी मार्किट बंद हो गई तो धनु और चंदा भी मायूसी के साथ घर वापस लौट आये।

पुरे शहर में सन्नाटा पसरा हुआ था, दंगा खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। अगर कभी कर्फ्यू में ढील दी भी जाती तो पूरे शहर में दंगा फिर भड़क उठता था। दिन बीतने लगे। अब तो धनु के घर में जमा किया हुआ अनाज भी खत्म होने लगा था, पैसों की भी तंगी महसूस हो रही थी।

जब दंगे खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे तो सरकार ने आर्मी को बुला लिया था, हाथ में राइफल लिए आर्मी के जवान पुरे शहर में गश्त लगाते थे।  आर्मी के जवानों का एक कैंप बस्ती के सामने ही लगा हुआ था, धनु वहीँ जवानों से बात कर के स्थिति का हाल जानने की कोशिश करता था। मगर जवानों के जवाब से उसे निराशा ही मिलती।

सुबह का समय था धनु अपनी झोंपड़ी  के बाहर बैठा था तभी दो जवान हाथ में दूध की थैली लिए धनु के पास आये और उसके  हाथ में दूध की थेली  देते हुए एक ने  कहा 
"धनु येलो दूध ज़रा अपनी बीवी से कह कर चाय बनवा दो"
"साहब" बड़ी ही मायूसी के साथ धनु ने कहा "घर में चाय पत्ती भी खत्म हो गई हे और चीनी भी नहीं है, कल रात से मेरे बच्चों ने कुछ भी नहीं खाया" कहते  हुए धनु की आँखे भर आयीं। जवान ने उसकी आँखों में देखा और उसके हाथों में दूध की थैली थमाते हुए कहा 
"ये लो ये दूध तुम रखो अपने बच्चों को दे देना" धनु के काफी मना करने पर  भी वह नहीं माने और वहां से चले गए। दोपहर को वही दो जवान हाथ में एक पैकेट लिए हुए आये और वह पैकेट धनु के हाथों में थमाते  हुए उनमें  से एक ने कहा 
"ये लो इसमें खाना है तुम सभी खा लेना" धनु ने जवान के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा 'साहब हम गरीब ज़रूर हैं पर भिखारी नहीं। 
"धनु ये भीख नहीं, हम भी तो तुम्हारे दोस्त हैं ?" एक जवान ने धनु के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा 
"साहब, ये दंगा करने वाले ये क्यों भूल जाते हैं कि हमारे जैसे कितने ही लोग हैं जो रोज़ कमाते हैं और रोज़ खाते  हैं , अगर चार दिन मार्किट बंद हो जाये तो उनके घर का चूल्हा बंद हो जाता है , उनके बच्चों को भूखे ही सोना पड़ता है। साहब मैं  और मेरी बीवी सुबह से लेकर रात तक मेहनत मज़दूरी करते हैं मगर किसी के आगे हाथ नहीं फैलाते।"
"धनु हम समझते हैं , मगर यह खाना अगर अपने बच्चों को नहीं खिलओगे तो वह भूखे ही दम तोड़ देंगे, क्या ये तुम्हें मंज़ूर होगा ?" जवान ने उसे समझाते  हुए कहा।  धनु भी जानता था इस बात को इसलिए मज़बूरी में उसने वह खाना ले लिया।  जवानों के जाने के बाद वह खाना अपनी पत्नी के हाथों में थमाते  हुए उसने कहा 
"ये लो खाना थोड़ा बच्चों को खिला दो थोड़ा  खुद खा लेना और थोड़ा रात के लिए बचा लेना" 
"तुम नहीं खाओगे क्या ?" चंदा ने पूछा 'नहीं तुम लोग खा लो' चंदा के लाख कहने पर भी धनु ने खाना नहीं खाया।

इसी तरह तीन चार दिन और बीत गए।  आर्मी के जवान रोज़ सुबह धनु को दूध की थैली और दोपहर व रात का खाना दे जाते थे, चंदा और आर्मी के जवानों के लाख समझाने पर भी धनु कुछ नहीं खाता था, वह सिर्फ एक ही बात कहता  
"मैं  अपने बच्चों का पेट नहीं भर सकता तो मुझे इस तरह  दिया हुआ खाना खाने का कोई हक़ नहीं, अगर बच्चों की चिंता नहीं होती तो मैं यह खाना कभी नहीं लेता।" 

दिन गुज़रते रहे इसी तरह और दो  दिन बीत गए, धनु अब बहुत ही कमज़ोर हो गया था। चंदा को अब धनु की चिंता सताने लगी थी।  वह भगवन से कर्फ्यू जल्द से जल्द हटने की  प्रार्थना करती रहती।

आज सुबह चंदा उठी तो उसने देखा धनु अभी सो रहा था, वह बाहर आ कर स्थिति का जायज़ा लेने लगी। तभी उसने देखा वही दो जवान भागते हुए उसी  की तरफ़ आ रहे हैं, पास पहुँचते ही एक जवान बोला "स्तिथि में सुधार को देखते हुए आज कर्फ्यू में सुबह ९ बजे से शाम के ७ बजे तक ढील दी गयी है, धनु कहाँ है ?" उसने इधर उधर नज़र घूमते हुए पूछा।  
चंदा ने जवाब देते हुए कहा  "साहब वो तो अभी सो रहे  हैं" 
दोनों जवान अंदर की तरफ भागे, चंदा भी उनके पीछे थी।  ख़ुशी से धनु की पीठ पर हाथ रखते  हुए एक जवान बोला 
"धनु आज कर्फ्यू में १० घंटे की छूट दी गई है, जल्दी से तैयार हो जाओ आज तुम्हे काम पर जाना है।" 
मगर धनु ने कोई हरकत नहीं की, वह उसी तरह सोया रहा। 
"धनु" ? जवान ने उसको ज़ोर से हिलाया तो धनु का शरीर एक तरफ लुढक गया।  दोनों  ने एक दूसरे की आँखों में देखा, दोनों ही के चेहरों  पर चिंता की लकीरें साफ़ देखि जा सकतीं थीं। एक जवान उसके दिल की धड़कन टटोलने लगा तो दूसरा उसके शरीर को।  
"मैं  डॉक्टर को लेकर आता हूँ तुम यहीं ठहरना" कहता हुआ एक जवान तेज़ी से बहार की तरफ भागा।  पास ही खड़ी चंदा कुछ समझ नहीं पा रही थी उसने पास खड़े जवान से पूछा  "क्या बात है साहब ? धनु उठ क्यों नहीं रहे ?" 
जवान ने उत्तर देते हुए कहा "कोई बात नहीं है शायद कमज़ोरी की वजह से" तभी दूसरा जवान एक डॉक्टर के साथ अंदर दाखिल हुआ। डॉक्टर ने अच्छी तरह से धनु को चेक करने के बाद धीरे से एक जवान के पास अपना मुंह लेजाते हुए कहा  
"ही इज़ डेड" 
दोनों जवान की आँखों से आंसू बह निकले, उन्होंने मुड़ कर धनु के छोटे बच्चों और चंदा की तरफ देखा और उनमें  से एक बोला 
"धनु नहीं रहा।"

चंदा  चीखी और भाग कर धनु के पास जा कर उसे ज़ोर से हिलाते हुए बोली  
"उठो आज कर्फ्यू हट गया है, हमें काम पर जाना है, मैं अकेली कैसे माल ढोउंगी ? मैं अकेली ठेला कैसे चलाऊंगी ? उठो उठो ना।" चंदा ने अपने पति  को झकझोरते हुए कहा। 
मगर धनु तो अब किसी अलग ही दुनियां में चला गया था जहाँ शायद न कोई ठेला था, न कोई कर्फ्यू।

धनु को इस  दुनिया से गए कुछ दिन हो गए थे।  एक दिन सुबह वही दो जवान चंदा के पास आये और उसे हाथ जोड़ कर नमस्ते करते हुए एक ने कहा 
"आज हम लोग वापस जा रहे हैं, जाने से पहले हमने सोचा आप को मिलते चलें। एक पैकेट चंदा के हाथ में थमाते हुए कहा "बस जाने से पहले आखरी बार खाना देने आएं हैं। हमने सरहद पर कई तरह की लड़ाई लड़ी हैं लेकिन यहाँ आकर हमने ज़िंदगी के साथ इस तरह की लड़ाई पहली बार देखी और महसूस की है। हमने पहली बार महसूस किया गरीबी क्या होती है, हमने पहली बार देखा कि कर्फ्यू कितने लोगों की जान लेता है। हमने पहली बार  यह जाना कि आप लोग ज़िन्दगी से हर  रोज़ एक नयी लड़ाई कैसे लड़ते हो।  आपको भी अब अपनी ज़िन्दगी की इस लड़ाई को अकेले ही लड़ना होगा, अपने बच्चों के लिए।" 
सुनते ही  चंदा फूट फूट कर रोने लगी।  जवान भी उसे दिलासा देते हुए अपनी आँखों में  आंसू लिए वापस लौट गए।

चंदा वहीँ बैठी गहरी सोच में डूबी रही, वह सोच रही थी कि धनु के जाने  के बाद अब उसी को ही अपने बच्चों का पेट पालने के लिए काम करना होगा। कैसे कर पायेगी वह ? वह गहरी चिंता में बैठी काफ़ी देर सोचती रही। मगर फिर अपने दिल को मज़बूत करते हुए अपने आंसू पोंछे और उठ खड़ी हुई।

अगले दिन सुबह उसने अपने पहले वाले रूटीन की तरह बच्चों को नाश्ता करवा कर उनका दोपहर का खाना रख दिया और अपना खाना पैक करके वह चल पड़ी, ठेले की तरफ़। ऑंखें भरी हुईं थीं, उसने आस पास नज़र घुमाई और सोचने लगी "कहीं कुछ भी नहीं बदला था, सभी कुछ वैसा ही चल रहा था, मगर उसकी और उसके बच्चों की ज़िन्दगी पूरी तरह बदल चुकी थी।" 

आँखों में आंसू लिए चंदा ने अपना ठेला उठाया, आज धनु नहीं था उसके साथ आज वह पीछे नहीं बैठी थी। लेकिन बस अब यही उसकी ज़िन्दगी थी और उसे इसी अकेलेपन में जीना था। 

इंसान चला जाता है मगर यादें सदा ज़िंदा रहती हैं

Kapildev Kohhli 



Saturday, November 15, 2014

मुस्कान


सर्दियों के दिन थे , सुबह का समय था, मैं अपने बिस्तर से उठा व रोज़मर्रा की तरह भगवन को माथा टेकने के बाद अखबार की हेडलाइंस को पढ़ने लगा। कुछ भी इंटरेस्टिंग नहीं लगने से मैं अखबार के पन्ने पलटने लगा। अख़बार की ख़बरों में कुछ भी  नया नहीं था, वही आतंकवाद की ख़बरें और राजनितिक पार्टियों का एक दूसरे पर हमला। स्पोर्ट्स की ख़बरें पढ़ने के बाद जब मैं अखबार को लपेट कर रख रहा था कि मेरी नज़र एक छोटी सी हैडलाइन पर थम गई, लिखा था "सर्दी की वजह से देश के अलग अलग जगहों पर कुल १२ लोगों को अपनी जान गवानी पड़ी।" मैंने पूरी  खबर को एक ही सांस में पढ़ा।

मैं सोचने लगा मौसम चाहे कोई भी हो गर्मी, बारिश यां सर्दियाँ मरना तो गरीब को ही पड़ता है।

कितने अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के इतने सालों  के बाद भी हमारी सरकारें इन गरीबों को रहने के लिए एक माकन और तन ढकने के लिए कपड़े यां सर्दी से बचने के लिए एक कम्बल तक मुहईय्या नहीं करवा पाई, गरीबी की वजह से हमारे देश में न जाने कितने बच्चों को अपने माँ बाप और न जाने कितने माँ बाप को अपने बच्चे गवाने पड़ते हैं। यह सिलसिला न जाने कितने सालों से चला आ रहा है और न जाने आनेवाले कितने सालों तक चलता रहेगा। कब ऐसी कोई सरकार आएगी जिसका ध्यान इन गरीबों की तरफ भी जाएगा ?

मैं बुझे मन से अख़बार को वहीँ रख कर उठ खड़ा हुआ। चूँकि रविवार का दिन था इसलिए मैं अपने सारे कार्य आराम से कर रहा था। मगर न जाने क्यों मन अंदर से काफी उदास व बुझा बुझा सा लग रहा था।

नहा धो कर पूजा करने के बाद मैं टीवी के सामने बैठ कर कोई प्रोग्राम देखने लगा, मगर मन पता नहीं क्यों वहां भी नहीं लग रहा था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि मन इतना उदास सा क्यों है ?

जब भी मैं अपने आप को डल या उदासीन महसूस करता हूँ तो मैं अक्सर कोई पुस्तक निकाल कर पढ़ने लगता हूँ। मैंने आज भी वही किया,एक पुस्तक निकाली और अपने आप को उसमें डुबो दिया।

दोपहर का खाना खा कर मैं सो गया।
शाम को जब नींद खुली तो महसूस किया कि ठण्ड काफी बढ़ गई है। मैंने अपने सामने अपनी पत्नी को बैठी पाया, जो शायद मेरी नींद खुलने का इंतज़ार कर रही थी। उसने एक शाल ओढ़ रखी थी, मैं उसे इसी शाल को पिछली पांच छे सर्दियों से ओढ़ते हुए देख रहा था। मैं कुछ पल उसे देखता रहा, फिर मन ही मन में सोचा क्यों ना आज पत्नी को एक सरप्राइज दिया जाए ? उसे आज एक नया शाल ला कर दूँ ! मैं उठा, स्वेटर पहना और पत्नी से यह कर कि "मैं अभी थोड़ी देर में आता हूँ", चल दिया उसके लिए एक शाल खरीदने।

एक अच्छा सा शाल खरीदकर उसे अच्छी तरह से पैक करवा कर मैं वापस घर की तरफ चल दिया।  मन ही मन मैं सोच रहा था कि शाल को देख कर पत्नी कितनी खुश हो जाएगी। 

मैं आधे रास्ते ही पहुंचा था कि सामने का दृश्य देख कर मेरा पाँव अनायास ही बाइक की ब्रेक पर ज़ोर से पड़ा, बाइक को रोक कर मैं अपने सामने के उस दृश्य को देखता रहा।  वहां फुटपाथ पर एक शायद आठ वर्ष का लड़का  और शायद दस वर्ष की लड़की एक दूसरे के कंधे पर हाथ रख कर चिपक कर बैठे हुए थे। उनके कपडे पुराने व कई जगह से फटे  हुए थे। शायद अधिक सर्दी की वजह से वे दोनों एक दूसरे के साथ सट कर बैठे थे। 

मैं कुछ देर यूंही खड़ा उन्हें देखता रहा, फिर मैंने अपनी बाइक को सड़क किनारे खड़ी की और हाथ में दबे पैकेट, जिसमे अभी खरीदी हुई शाल थी,लिए उनकी तरफ बढ़ गया। 
मैं उनके पास पहुंचा और पूछा "क्या नाम है तुम्हारा ?"
लड़का उत्तर देने की  बजाय उस लड़की को देख कर मुस्कुराने लगा। मैंने फिर अपना सवाल दोहराया तो उस लड़की ने उत्तर दिया 
"मेरा नाम शीला है और इसका  नाम चुन्नू , ये मेरा भाई है। "
"क्या तुम्हे सर्दी लग रही है ?" मैंने अगला सवाल पूछा 
"हां साब, पर हमारे पास और कपड़े नहीं हैं। " लड़की ने बड़े ही भोलेपन से उत्तर दिया। 

मैं कुछ देर यूंही खड़ा उनकी तरफ देखता रहा, फिर अपने हाथ वाले पैकेट को देखा, उसे खोल कर उसमें से शाल निकाल कर उससे उनको ढक दिया। 
दोनों ने खिंच कर शाल लपेट लिया, उनकी टाँगे सिमट गईं और चेहरे पर मुस्कराहट आ गई। 

उनकी उस मुस्कराहट ने मेरे मन की उस दिन भर की उदासी को खत्म कर दिया। वह दोनों शाल ओढ़ने के बाद मुझे ऐसे देख रहे थे जैसे मन ही मन शुक्रिया अदा कर रहे हों। 

मैं उनकी उस मुस्कान को दिल में छुपाये अपनी बाइक की तरफ मुड़ा और वापस अपने घर की तरफ चल दिया। मैं अपने आप को बड़ा ही हल्का सा महसूस कर रहा था। 

मुझे पहली बार महसूस हुआ कि किसी ज़रूरतमंद की ज़रूरत को पूरा कर  के और उनके चेहरे पर मुस्कराहट ला कर मन को कितना सुकून, कितनी शांति मिलती है ! दोनों की उस मुस्कराहट ने मेरे दिन भर की उस उदासी व बोझिलपन को खत्म कर दिया था। मैं भी मुस्कुरा रहा था। 

इन्ही सब में जब मैं घर पहुंचा तो पत्नी को दरवाज़े पर इंतज़ार में खड़ी पाया। मुझे देखते ही तुरंत बोली "कहाँ चले गए थे ? मैं कब से तुम्हारा इंतज़ार कर रही हूँ ?"

मैं कुछ भी नहीं बोला सिर्फ मुस्कुराता रहा और ख़ुशी में अपनी पत्नी को अपनी बाहों में उठा लिया।  

Romy Kapoor (Kapildev)