Saturday, August 9, 2014

दिलों के रिश्ते - A Short Story





सुबह का समय था, गैस का चूल्हा जल रहा था और उसके ऊपर सरिता ने दूध उबलने के लिए रखा हुआ था। सरिता ने दूध का पतीला गैस के ऊपर चढ़ाया ही था कि पड़ोसिन के बुलाने पर वह बाहर चली गई थी, उसीसे बातें करते हुए उसे ध्यान ही नहीं रहा कि दूध ऊपर रखा हुआ है। उसका पति राकेश नहाने गया हुआ था, जब राकेश नहा कर निकला तो उसने देखा दूध उफ़न कर बाहर गिर रहा था,जिसकी वजह से पूरे शेल्फ पर दूध ही दूध फ़ैल गया था, गैस के बर्नर पर दूध गिरने की वजह से गैस बुझ चुका था, मगर कॉक ओन होने की वजह से गैस लीक हो रहा था। जब राकेश ने यह देखा तो तुरंत भाग कर पहले गैस का स्विच ऑफ किया और गुस्से में लाल पिला होते हुए ज़ोर से चिल्लाते हुए अपनी पत्नी को आवाज़ दी "सरिता"
सरिता ने जब गुस्से में तमतमाती हुई आवाज़ सुनी तो वह तुरंत अंदर की तरफ  भागी।
"ये देख रही हो ? तुम्हारा ध्यान किसी भी काम में ठीक से लगता है कि नहीं ?" राकेश ने चिल्ला कर कहा।
"अरे वो पड़ोसिन ने आवाज़ दी तो मैं बहार चली गई और बातों बातों में ध्यान ही नहीं रहा, इसमें इतना चिल्लाने वाली क्या बात हो गई ?" सरिता बोली
"चिल्लाने वाली कोई बात ही नहीं ! एक तो पूरा दूध गिर गया, गैस चालू था अगर मैं घर में नहीं होता यां मेरा भी ध्यान नहीं गया होता तो कोई भी एक्सीडेंट हो सकता था, और तुम कह रही हो कि चिल्ला क्यों रहे हो ?" राकेश काफी गुस्से में था।
सरिता यह समझ रही थी कि उससे गलती हुई है, सो वह चुप चाप एक कपडे से शेल्फ को साफ़ करने लगी।

राकेश और सरिता के झगड़े कोई नयी बात नहीं थी, आये दिन उनमें झगडे होते रहते थे कई बार तो किसी बात को लेकर झगड़ा इतना बढ़ जाता था कि दोनों के चिल्लाने की आवाज़ें अड़ोस पड़ोस के लोग भी सुनते थे, और ये बात अब सभी जानते थे कि उन दोनों के रिश्ते आपस में ठीक नहीं हैं। कभी भी, किसी भी, छोटी सी बात पर दोनों लड़ने झगड़ने लगते थे।

दोनों के इन रोज़ रोज़ के झगड़ों से तंग आकर उन्होंने कोर्ट में तलाक़ की अर्ज़ी दे रखी थी, मगर कोर्ट ने उन्हें छः महीने का समय दिया था, अपने बीच के  मनमुटाव को दूर करने का व अपने रिश्तों को सुधारने का।
दो महीने का समय गुज़र चुका था और अब सिर्फ चार महीने बाकी थे, मगर ना तो इन दोनों में कोई बदलाव आया था और नाही उनके रोज़ रोज़ के झगड़े कम हुए।

दोनों की एक बेटी भी थी, तृषा नाम था उसका, अभी तीसरी कक्षा में पढ़ती थी वह। जब भी उसके सामने उसके माता पिता का झगड़ा होता तो वह सहम जाती थी और चुप चाप आंसू बहाती रहती थी, मगर घंटो दोनों में से किसी का ध्यान नहीं जाता था उसकी तरफ। घंटो वह अकेली बैठी रहती थी और कभी कभी तो यूँही रोते रोते बिना कुछ खाए पिए ऐसे भूखी ही सो जाती थी।

दोनों के दिन यूंही गुज़र रहे थे। दोपहर का समय था तृषा भी स्कूल से लौट चुकी थी। राकेश दोपहर का खाना खाने के लिए घर आया था, तभी उसने महसूस किया कि सरिता अभी अभी कहीं बाहर से आई थी।
"कहीं बहार गयीं थीं ?" राकेश ने सरिता की तरफ देखते हुए पूछा।
"हाँ, अपनी एक सहेली से मिलने गई थी" सरिता ने उत्तर दिया।
"तुमने मुझे बताया नहीं ? "
"मैंने ज़रूरी नहीं समझा " सरिता  ने उत्तर दिया तो राकेश की भवें चढ़ गईं।
"क्यों" उसने पूछा
"क्यूंकि ज़्यादा दूर नहीं गई थी ". सरिता ने कहा।
"सवाल पास यां दूर का नहीं है, तुम्हें मुझे पूछना चाहिए था यां मुझे बताना चाहिए था, तुम कहाँ गई हो इसका मुझे पता होना चाहिए, पति हूँ मै तुम्हारा " राकेश ने कहा तो सरिता ने आँखें घुमा कर राकेश की तरफ देखते हुए कहा "कितने महीने के ?"
"चाहे दो दिन ही क्यों ना बाकी रह गए हों, जब तक तुम इस घर में हो तब तक तुम्हें एक पत्नी की तरह ही रहना होगा" राकेश ने कहा।
"और उसके बाद ?" सरिता ने आँखे चौड़ी करते हुए पूछा
"उसके बाद तुम कहाँ जाती हो, क्या करती हो मुझे उससे कोई मतलब नहीं रहेगा" राकेश ने उत्तर दिया।
"तो फिर अभिसे इस चीज़ की आदत डालनी शुरू करलो "
"देखो सरिता, तुम बहस कर रही हो" राकेश ने कहा।
"मैं बहस नहीं कर रही, मैं आने वाली परिस्थितियों से तुम्हे अवगत करवा रही हूँ " सरिता ने थोड़ी ऊंची आवाज़ में जवाब दिया।
"देखो सरिता हमेँ कोर्ट ने एक समय दिया है और उस समय मर्यादा के दौरान हमें एक दूसरे के साथ घर के तौर तरीकों के हिसाब से ही रहना होगा " राकेश बोला।
"घबराओ  नहीं भाग नहीं जाउंगी किसीके साथ, ऐसी औरत नहीं हूँ "
दोनों में काफी देर बहस होती रही और बीच बीच में यह बहस उग्र भी हो जाती।  मगर आखिर में राकेश यह कहता हुआ कि "तुमसे तो बहस करना ही बेकार है " अपना बैग उठा कर बिना खाना खाए ही वापस अपने ऑफिस लौट गया। सरिता ने अपनी दवाई खाई और अंदर बैडरूम में जाकर सो गई।

इन सब के बीच एक छोटी सी बच्ची थी, तृषा, जो उसी समय स्कूल से वापस लौटी ही थी, उसने खाना भी नहीं खाया था।  डरी सहमी सी तृषा दूसरे कमरे में बैठी थी, चेहरे पर डर और आँखों में आंसू, मगर दोनों मेंसे किसीने उसकी सुध भी नहीं ली थी। दोनों सिर्फ अपने सुख चैन के लिए अलग होना चाहते थे मगर तृषा का क्या होगा दोनों  मेंसे किसीने नहीं सोचा था। छोटी सी बच्ची मजबूर थी, वह कुछ कर भी नहीं सकती थी।

युहीं कुछ देर वह बुत बनी खड़ी रही फिर कुछ देर बाद वह भी चुपचाप बैडरूम में जाकर अपनी मम्मी के पास जा कर लेट गई। करीब एक घंटे बाद जब राकेश का गुस्सा ठंडा हुआ तो अचानक उसे याद आया कि "तृषा उसी समय स्कूल से आई थी और उसने तो खाना भी नहीं खाया था, और उसीने ही क्यों सरिता ने भी तो खाना नहीं खाया था", उसे अफ़सोस हो रहा था कि छोटी सी बात को लेकर उसने इतना बड़ा इस्यु बना दिया। उसने सोचा "अब वह थोड़े समय के लिए उसके साथ रहने वाली है उसे उसका पूरा ध्यान रखना चाहिए, उसे बहुत सी खुशियां देनी चाहिए" उसने तुरंत घर पे फ़ोन लगाया, फ़ोन सरिता ने ही उठाया, राकेश ने  कहा "हैल्लो सरिता, तृषा ने खाना नहीं खाया था, उसे  खाना खिलाया क्या ?"
"बड़ी जल्दी ख्याल आ गया ?... माँ हूँ मैं  उसकी, उसको खाना खिला कर सुला दिया है मैने।" सरिता बोली
"तुमने भी तो खाना  नहीं खाया था" कुछ देर चुप रहने के बाद राकेश ने कहा।
"तुम भी तो यूँही खाए बगैर चले गए तो में कैसे खा सकती हूँ ?"
"लेकिन बाद में तुम कौनसा देखने आओगी कि मैंने खाना खाया यां नहीं" राकेश ने मायूसी से कहा।
"बाद में  तुम शादी कर के किसी और को ले आना। लेकिन  तुमने ही तो कहा था कि जब तक इस घर में हूँ तबतक एक पत्नी की तरह ही रहूँ" फिर थोड़ा रुक कर सरिता ने कहा "तुम भी गुस्से में यूँही  चले गए थे तो कुछ मंगवा कर खा लेना "
"हाँ ठीक है" फिर कुछ रूककर बोला "सुनो क्या ऐसा नहीं हो सकता कि जब तक हम साथ हैं तब तक झगड़ा ना करें ?"
"तो क्या मैं लड़ती रहती हूँ ?"
"तो क्या मुझे पागल कुत्ते ने काटा है जो बैठे बैठे ही तुमसे लड़ना शुरू कर देता हूँ ".
सरिता ने जब देखा कि बात बिगड़ रही है तो उसने फोन काट दिया।

सरिता और राकेश दोनों ही हालाँकि यही सोचते थे कि अब कुछ ही महीने साथ रहना है तो क्यों  ना प्यार से रहें , मगर दोनों का झगड़ा किसी न किसी बात पर हो ही जाता था। यही झगड़ा कई बार तो काफी उग्र स्वरुप लेलेता था।  अब तो दोनों ही को लगने लगा था कि उनके बीच किसी भी तरह का एडजस्टमेंट हो पाना मुश्किल है, सो दोनों ही कोर्ट की मियाद पूरी होने का इंतज़ार कर रहे थे।

वक़्त यूँ ही गुज़रता रहा कभी लड़ते झगड़ते तो कभी थोड़ा प्यार में। अब उनके हमेशा के लिए बिछड़ने का समय नज़दीक आता जाता  रहा था, सिर्फ डेढ़ महीना बाकी बचा था।  मगर इस सब के बीच, घर में एक व्यक्ति ऐसी भी थी जो नहीं जानती थी कि केवल पेंतालिस दिनों बाद उसके नन्हे से जीवन में कितना बदलाव आने वाला है, वो थी तृषा।

सुबहा  का  समय  था, राकेश ऑफिस जाने के लिए निकल रहा था, तभी सरिता  ने  राकेश  से कहा "सुनो मैं आज  अपनी  सहेली आशा से  मिलने जाउंगी, मैंने उसे एक किराए के मकान के लिए कहा था, सो कल उसका फोन आया था, कह रही थी एक मकान है उसकी नज़रों में, बस वही देखने जाना है और अगर जंच गया तो फिक्स कर दूंगी।" राकेश ने सरिता की आवाज़ में छुपे दर्द को महसूस किया। 
राकेश ने सरिता की आँखों में देखा और चुप चाप बिना कुछ बोले निकल गया। सरिता भी उसे दूर तक जाते हुए देखती रही।
रात को खाने की टेबल पर राकेश ने सरिता से पूछा "क्या हुआ उस माकन का जो तुम देखने गयी थीं ?"
सरिता बोली "हां, मकान मालिक को तीन महीने का एडवांस दे दिया, दो कमरों का माकन है, इससे बड़ा करना भी क्या है, सिर्फ मुझे और तृषा को ही तो रहना है। "
उस रात दोनों में इसके इलावा और कोई बात नहीं हुई। दोनों ही किसी गहरी सोच में डूबे हुए थे, सरिता शायद आने वाली उस आंधी के बारे में सोच रही थी जो कितनी ही ज़िंदगियों को तहस नहस कर के चली जायेगी। सच में आदमी वक़्त के हाथों की वो कठपुतली है जो इधर से उधर लुढ़कती रहती है, लोग देखते हैं, तालियां बजाते हैं मगर उस कठपुतली का दर्द कोई नहीं जान पाता।

इसी तरह बीस दिन और बीत गए। एक दिन सरिता ने राकेश से कहा " मुझे एक कंपनी में नौकरी मिल गयी है, एडमिनिस्ट्रेटिव मैनेजर की , तनख्वाह भी अच्छी है, मैंने उनसे एक महीने का समय माँगा हे, ज्वाइन करने के लिए।"
"मगर तुम अगर सारा दिन ऑफिस में रहोगी तो तृषा का ध्यान कौन रखेगा ?" राकेश ने सरिता की तरफ देखते हुए पूछा।
"हाँ मुझे भी उसीकी चिंता है, मगर जॉब तो करनी ही पड़ेगी, वरना घर कैसे चलाऊंगी ? तृषा को सोचती हूँ किसी हॉस्टल में डाल दूंगी।" इतना कहने के बाद सरिता दूर शून्य में कहीं देखने लगी। वह सोच रही थी "आंधियों का सामना करते करते बड़े बड़े पेड़ थक कर गिर जाते हैं तो तृषा तो अभी बहुत ही छोटा पौधा है, वह कैसे सामना करपाएगी इस आंधी का ?"
राकेश भी चुप था ।

आखिर वह दिन भी आ ही गया।
पति पत्नी के तौर पर यह उनका आखरी दिन था, एक दूसरे  के साथ। कल कोर्ट की तारीख थी और वह जानती थी कि राकेश तलाक़ ही मांगेंगे, इसीलिए उसने सोच भी लिया था कि वह भी उस बात के लिए इंकार नहीं करेगी, और दोनों हमेशां हमेशां के लिए जुदा हो जायेंगे।
दोनों ही आज सुबह जल्दी उठ गए थे। दोनों ही ने मन ही मन में यह फैंसला कर लिया था कि आज चाहे कुछ भी हो जाए आज वह किसी भी बात पर झगड़ा नहीं करेंगे। राकेश ने सोचा था कि वह आज सरिता और तृषा के साथ पूरा दिन गुज़ारेगा, उन्हें बाहर घुमाने ले जाएगा, फिल्म दिखायेगा और रात को सरिता की पसंद के किसी होटल में उसीकी पसंद का खाना खिलायेगा।

राकेश जब तैयार होकर नाश्ते की टेबल पर आया तो उसने देखा तृषा और सरिता दोनों ही उसका इंतज़ार कर रहे हैं व नाश्ते की टेबल पर कई तरह की प्लेटें  सजी हुईं थीं। पहले तो उसने कहा "सॉरी थोड़ा लेट हो गया" फिर कुछ रूककर बोला "वाओ, ये क्या सरिता इतनी सारी चीज़ें ?"
"बस आज का दिन ही तो है, मैंने सोचा तुम्हें तुम्हारी पसंद की चीज़ें अपने हाथों से  बनाकर खिलाऊँ, कल तो मुझसे बनाया नहीं जाएगा और शायद तुमसे खाया भी नहीं जाएगा" सरिता का गला भर आया था ये कहते हुए।  
"सरिता मैं भी चाहता हूँ कि आज तुम दोनों को ढेर सारी खुशियां दूँ , फिल्म दिखाने ले जाऊं, तुम्हारी पसंद के किसी होटल में तुम्हारी पसंद का खाना खिलाऊं, पूरा दिन बाहर घूमें हम तीनों। " राकेश ने सरिता से कहा तो सरिता बोली "बाहर ? आज तो में पूरा दिन घर में ही बिताना चाहती हूँ, क्यूंकि कल के बाद तो यह घर भी मेरा नहीं रह जाएगा, फिर तो बाहर ही रहना है ! राकेश आज मैं इस एक दिन में अपनी पूरी ज़िन्दगी जी लेना चाहती हूँ। " कहते कहते सरिता फुट फुट कर रोने लगी।  
राकेश काफी देर उसके सर पर हाथ फेरता रहा। लेकिन आखिर में उन्होंने तय किया कि वे कुछ देर के लिए मार्किट में जाएंगे, दोपहर का खाना किसी होटल में ही खाएंगे और वापस आ जायेंगे। 

कुछ देर बाद वे मार्किट में पहुंचे तो एक शोरूम को देख कर राकेश अंदर चला गया, उसने तृषा के लिए चार पांच ड्रेस खरीदीं और फिर सरिता के लिए साड़ियां देखने लगा। एक साड़ी पर नज़र पड़ते ही उसने सरिता की तरफ देखते हुए कहा "सरिता देखो ये तुम्हारे ऊपर बहुत जंचेगी " 
"मगर मैं कोई साड़ी नहीं लेना चाहती " सरिता ने कहा 
"मगर एक दो तो..... "अभी लफ्ज़ राकेश के मुंह में ही थे कि सरिता चिल्ला पड़ी "नहीं.... नहीं चाहिए मुझे, नहीं पहन पाऊँगी मैं, नहीं पहन पाउंगी" कहती हुई वह बाहर की तरफ दौड़ गई। 
सभी अचंभित से उसे व राकेश को देखते रहे।

घर पहुँच कर सरिता रात का खाना  बनाने में लग गई। तृषा अपने पापा के पास बैठी थी, वह आज बहुत ही खुश नज़र आ रही थी। उसने इसी ख़ुशी का इज़हार करते हुए अपने पापा से कहा "पापा आप बहोत अच्छे हो",  राकेश ने उसे अपनी गोद में उठा लिया और अपने सीने से लगाता हुआ बोला "नहीं बेटा मैं बहुत ख़राब हूँ.... बहुत ही खराब हूँ मैं। मुझे माफ़ करदेना मेरी बच्ची"  राकेश की आँखें भर आयीं।

रात के खाने में सरिता ने राकेश के पसंद की कईं चीज़े बनाईं थीं । खाना खा कर तृषा सो गई मगर सरिता और राकेश की आँखों में नींद नहीं थी, सरिता राकेश के पास बैठी हुई थी, उसका हाथ राकेश के हाथ में था और शुन्य में देखती हुई उसने कहा "मैं कितनी खुश थी जब इस घर में आई थी,मुझे याद आ रहे हैं वो पल, वो दिन, मगर सबकुछ कितनी जल्दी बदल गया, आज मैं इस तरह तुम्हारे हाथों में हाथ रख कर बैठी हूँ, मगर कल सब कुछ बदल चूका होगा" फिर थोड़ा सा रूककर बोली "देखो किचेन में नीचे दाहिनी तरफ के कपबोर्ड  में सभी दालों के डिब्बे पड़े हैं, चीनी का डिब्बा व चाय पत्ती का डिब्बा ऊपर शेल्फ पर ही पड़ा होता है, फ्रीज में अभी तीन चार दिन चलजाएँ उतनी सब्ज़ियाँ पड़ी हैं, किसी खाना बनाने वाली को रख लेना, खाना ठीक समय पर खाना व शाम को टाइम से ही घर आजाना।"
"किसके लिए ?" राकेश की आवाज़ में मायूसी थी।
"तुम शादी कर लेना" सरिता ने राकेश से कहा।
कुछ देर सरिता को देखते रहने के बाद राकेश ने कहा "तुम भी अपनी नौकरी से टाइम पर घर आजाया करना, और अपनी दवाई ठीक से लेती रहना, अपनी बीपी की गोलियां रखलेना और मैं अपने बारे में तो कुछ नहीं कहता, मगर तुम कोई   कोई अच्छा सा आदमी देख कर उससे शादी कर लेना। जो मेरी तरह तुमसे झगड़ा ना करे। एक औरत के लिए अकेले पूरी ज़िन्दगी गुज़ारना बड़ा ही मुश्किल होता है।"  राकेश ने कहा तो सरिता की आँखों से आंसू बहने लगे।आँखों के आंसूओं को पोंछते हुए उसने कहा "कितना अजीब लगेगा कल जब मैं सरिता श्रीवास्तव से सिर्फ सरिता रह जाउंगी।" उसने राकेश की आँखों में देखा और वह अपने आप को रोक नहीं सकी, फूट फूट कर रोने लगी। 

दोनों देर तक इसी तरह बातें करते रहे और बातों ही बातों में कब सुबहा हो गई पता ही नहीं चला। 
सुबहा घर से निकलते हुए सरिता ने बड़ी ही हसरत से अपने घर को देखा, आँखें भरी हुईं थीं और मन में माँ भगवती का जाप कर रही थी। 
जैसे ही कार कोर्ट के मुख्य द्वार के  पास पहुंची तो सरिता ने राकेश की आँखों में  देखते हुए कहा "मुझे तलाक़ नहीं देना राकेश, मैं और तृषा बिखर जाएंगे, मुझे तलाक़ नहीं चाहिए " और वह फूट फूट कर रोने लगी। 
राकेश ने उसे थामते हुए कहा "हे, सरिता सम्भालो अपने आप को, ये क्या हो गया है तुम्हे ?" 

सरिता यूँही कुछ देर रोती रही और फिर अपने आप को संभालती हुई कार से उतर कर अपने वकील से मिलने चली गई।      
राकेश भी अपने वकील की ऑफिस की तरफ चलदिया। अब सरिता बैचेनी से इंतज़ार कर रही थी, राकेश के स्टैमेन्ट का। 
करीब बारह बजे उनका नाम पुकारा गया। दोनों जज साहब  के सामने थे। जज साहब ने राकेश को कटघरे में आने को कहा, पूछा 
"बताइये क्या फैसला किया आपने ? आज आप लोगों के छः महीने की मियाद पूरी हो गई है, आप दोनों ही समझदार हो और आपने अपनी बच्ची के भविष्य के बारे में भी सोचा होगा , बताइये मिस्टर राकेश क्या फैसला है आपका?" जज साहब ने पूछा तो राकेश दो मिनट यूँही शुन्य में देखता रहा, फिर उसने सरिता की तरफ देखा जो सिमटी सी, डरी डरी सी, बड़ी ही बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी राकेश के उत्तर का। 
सरिता का  दिल ज़ोरों से धड़क रहा था, उसने फैंसला किया था कि राकेश के तलाक़ का वह विरोध नहीं करेगी। 
"बोलिए मिस्टर राकेश" जज साहब ने फिर दोहराया। 
"जज साहब, मैं तलाक़ लेना चाहता हूँ" राकेश के ये बोल पिघले सीसे की तरह सरिता के कानों में उतरते चले जा रहे थे। राकेश ने सरिता की तरफ देखा फिर  कुछ रूककर आगे  बोला "मेरा यही सोचना था, आखरी समय तक, मगर पिछले कुछ  दिनों में मैंने सरिता के दिल का वह दर्द महसूस किया, उसकी आँखों की उदासी को देखा, मैंने तृषा की जगह खुद को बैठा कर देखा, और मैंने खुद को इन दोनों के बिना अकेले रख कर देखा, तो मैंने महसूस किया दिलों के रिश्ते इन तलाक़ के कागज़ों से नहीं टूट सकते। मैं अपनी पत्नी और बच्ची के बगैर मर जाऊँगा "
सरिता की आँखों से ख़ुशी के आंसू बहने लगे, वह भी तबतक राकेश के पास आगई थी, उसे अपने गले से लगाते हुए राकेश  बोला "पिछले दो दिनों में मैंने महसूअ किया मैं तुम्हारे बिना कुछ भी नहीं, इन दिलों के रिश्ते को कोई नहीं तोड़ सकता। सरिता चलो वापस अपने घर, वो घर तुम्हारा है और हमेशां तुम्हारा ही रहेगा, उस घर में मैं तुम्हारे बिना किसी और की कल्पना भी नहीं कर सकता, तुम सरिता श्रीवास्तव हो और हमेशा इसी नाम से जानी जाओगी।

और दोनों एक दूसरे का हाथ थामे चलदिये अपने घर की ओर।  
दोनों ही की आँखों में आंसू थे, मगर ख़ुशी के।    

Kapildev Kohhli

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