आकाश उदास सा अपनी बालकनी में बैठा हुआ था, हाथों में किताब थी, उसी के पन्ने पलट रहा था, पढ़ने का भी जी नहीं कर रहा था तो किताब को अपनी टांगो पर रख कर टाँगे पसार कर बैठते हुए आँखे मूँद लीं। उसे पता ही नहीं चला कब उसकी आँख लग गई , उसकी नींद तो तब खुली जब किसीने उसे झकझोर के उठाने की कोशिश की।
"कौन......? कौन है ? अचानक नींद में से जाग कर अपनी पलकें झपकते हुए उसने इधर उधर देखते हुए पूछा।
"मैं हूँ , देखो " एक स्त्री की आवाज़ ने उसे चौंका दिया।
आकाश पूरी तरह से जाग चुका था और अपने सामने किसी अनजान स्त्री को खड़ा देख कर चौंक गया।
वह स्त्री बहुत ही सुन्दर दिख रही थी, लम्बे लम्बे बाल, कानों में कुण्डल, माथे पर लाल बिंदी व हलकी गुलाबी रंग की साड़ी पहन रखी थी। उसके चेहरे पर अजीब सा तेज था व बड़ी बड़ी आँखे उस चेहरे को और भी सुन्दर बना रहीं थीं।
"तुम.....? तुम कौन हो और अंदर कैसे आईं ? आकाश झट से उठ कर मुख्य दरवाज़े की तरफ भागा, उसने दरवाज़े की कुण्डियां चेक कीं, सही से लगी हुईं थीं। वह फिर हड़बड़ा कर भागता हुआ अपनी बालकनी में आया, उसने देखा वह स्त्री मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
"दरवाज़ा तो अंदर से बंद है फिर तुम अंदर कैसे आई ? कौन हो तुम ?" आकाश बौखलाया हुआ था।
"अरे मुझे नहीं पहचाना ?" उस स्त्री ने मुस्कुराते हुए पूछा .
"नहीं, मैंने तो तुम्हे पहले कभी भी नहीं देखा ! कौन हो तुम ?" आकाश की हालत एकदम खस्ता थी।
"मैं... वैष्णवी" उस स्त्री ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
"वैष्णवी ? कौन वैष्णवी ?" आकाश काफी घबराया हुआ था।
"अरे , वैष्णवी , जिसकी तुम पूजा करते हो और हर रविवार मेरे मंदिर में माथा टेकने आते हो, वही "
"माँ वैष्णो देवी ?" आकाश ने फटी आँखों से पूछा।
"हां वही" मुस्कुराते हुए उस स्त्री ने उत्तर दिया।
"तुम मज़ाक मत करो" आकाश ने अपना सर झटकते हुए कहा "ये भगवान और देवियाँ फिल्मों और टीवी सीरियलों में ही इस तरह से सामने प्रकट होते हैं, सच में तो किसे भगवान और देवियाँ दिखाई देतीं हैं ?" आकाश ने कहा।
"तुम मेरा विश्वास क्यों नहीं कर रहे हो ?'
"अरे कैसे करू विश्वास ? ऐसा भी कभी होता है ? तुम तो मुझे यह बताओ कि तुम कौन हो और मेरे घर में कैसे घुसी ? वार्ना मैं अभी पुलिस को बुलाता हूँ " आकाश अब काफी परेशान दिखाई दे रहा था।
"अरे तुम मेरी पूजा रोज़ करते हो और आज जब मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ तो तुम मुझे पहचानने से भी इंकार कर रहे हो ?"
"हाँ तो कैसे विश्वास करूँ ? क्या आज के ज़माने में भी कभी देवी देवता इस तरह से किसी के घर में प्रगट होते हैं क्या ?"
"तुम मनुष्य भी बड़े ही अजीब होते हो, दुःख के समय चिल्ला चिल्ला कर कहते हो कि "हे माँ हे भगवन तुम कहाँ हो ? तुम क्यों नहीं आते सामने, और अब जब मैं तुम्हारे सामने खड़ी हूँ, तुम पहचानने से ही इंकार कर रहे हो " उस स्त्री ने कहा।
"तुम तो मुझे कोई बहुत ही बड़ी फ्रॉड लग रही हो, मुझे बुलाना ही होगा पुलिस को " कहते हुए आकाश ने उस स्त्री की आँखों में देखा।
"ठीक है बुलाओ। "
आकाश समझ गया कि यह स्त्री ऐसे नहीं जायेगी , उसने तुरंत पुलिस को फ़ोन किया, करीब आधे घंटे बाद पुलिस आ गई। आकाश के घर पुलिस को आई देख कर अड़ोस पड़ोस के लोग भी उसके घर में इकट्ठा हो गए।
"बताइये क्या बात है ?" इंस्पेक्टर आकाश से मुखातिब होते हुआ बोला।
"सर, यह औरत पता नहीं कहाँ से मेरे घर में घुस आई है और पूछने पर कहती है कि मैं माता वैष्णो देवी हूँ। " आकाश ने उस औरत की तरफ इशारा करते हुए कहा
आकाश की बात सुनते ही पहले तो इंस्पेक्टर ने आकाश को सर से पांव तक बड़ी ही अजीब नज़रों से देखा फिर चारों तरफ नज़रें घूमा कर देखते हुए पूछा "कहाँ है वह औरत ?"
"इंस्पेक्टर साहब यह सामने तो खड़ी है !" आकश ने फिर उस ओर इशारा करते हुए कहा।
"अरे आकाश भाई कहाँ है कोई औरत ? कौनसी औरत के बारे में बात कर रहे हो ?" आकाश के पड़ोसी ओमप्रकाश ने पूछा।
"यह सामने खड़ी औरत आप लोगों को दिखाई नहीं दे रही है क्या ?" आकाश झल्ला कर बोला, उसने देखा वह औरत अब भी मंद मंद मुस्कुरा रही थी।
"आकाश तुम आराम से बैठो, पानी पियो, क्या हो गया है तुम्हें ? ओमप्रकाश ने आकाश को खिंच कर कुर्सी पर बैठाया, किसीने लाकर पानी दिया, सभी आपस में फुस फुसा रहे थे और आकाश को देख कर मुस्कुरा रहे थे , मगर आकाश बार बार उधर इशारा कर के अपनी बात दोहराता रहा, लेकिन सभी उसे पागल समझ रहे थे, पुलिस इंस्पेक्टर ने भी उसे इस तरह से उनका समय बर्बाद करने के लिए झिड़का व वार्निंग देकर चला गया। अड़ोस पड़ोस के लोग भी मुस्कुराते हुए आकाश की बातें करते हुए चले गए।
किसी ने कहा "बेचारे की बीवी यहाँ नहीं है इसलिए पगला गया है" तो किसी ने कहा अकेले बैठे बैठे दिमाग सतक गया लगता है" सभी अपने अपने तरीके से व्यंग कस्ते रहे व आकाश की तरफ देखते व हस देते।
"तुम सच बताओ तुम कोई छलावा हो, कौन हो तुम ?" आकाश को लगा वह वाकई में पागल हो जायेगा।
"ठीक है ऐसे तो तुम मानोगे नहीं ये लो "
ता रहा उसके सामने शेर खड़ा था और वह स्त्री उसके ऊपर बैठी आकाश की आँखे फटी की फटी रह गईं, वह बस साँसे रोके देखथी।
"माँ तुम मेरे घर में !" आकाश हाथ जोड़ कर नत मस्तक हो गया।
"हाँ मैं हर उस घर में हूँ जो सच्चे दिल से मुझे याद करता है, मैं हर उस इन्सान के पास हूँ जो तकलीफ में और मुसीबत में है। " माँ ने कहा
"मगर माँ तकलीफ और मुसीबत भी तो आप ही देते हो।" आकाश उसी तरह हाथ जोड़े खड़ा था।
"ये उसके पिछले जन्मों के कर्मों का फल है जो उसे भुगतना पड़ता है।"
"तो क्या इस जनम के कर्मों का फल अगले जनम में भुगतना पड़ेगा ?"
"कुछ ऋण ऐसे होते हैं जो मनुष्य को इसी जनम में अदा करने पड़ते हैं जबकि कुछ ऋण ऐसे भी होते है जो उसे अगले जनम में चुकाने पड़ते हैं। लेकिन यह तो तय है कि हर इंसान को अपने कर्मों का फल तो भुगतना ही पड़ता ही है । "
"जब सभी यह जानते हैं तो लोग छल कपट और पाप क्यों करते हैं ?" आकाश ने फिर पूछा।
"यही तो नियति है " माँ ने कहा।
"माँ मैं आज धन्य हो गया, आप मेरे घर पधारे हैं, मुझे क्षमा करना मैंने आप को क्या कुछ नहीं कहा , यहाँ तक कि पुलिस तक को बुला लिया !" आकाश क्षमा वाली मुद्रा में बैठा था फिर कुछ देर रुका और बोला "माँ आइये ना अंदर बैठ कर बातें करते हैं" आकाश वैष्णो देवी माता को अंदर ले गया।
"माँ मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं आपकी सेवा कैसे करूं ? आप बड़ी दूर से आईं हैं पानी तो पियेंगी ना ?"
"हाँ ले आओ "
आकाश कांच के गिलास में पानी ले आया, गिलास उनके हाथ में थमाते हुए बोला "माँ आप कहां रहती हैं ?
"मैं आकाश में रहती हूँ " मुस्कुराते हुए आकाश की तरफ देखा और बोलीं "ज़रूरत सिर्फ सच्चे दिल से अपने दिल में झाँकने की है, तुम काफ़ी दिनों से बड़े उदास थे और बार बार मुझे याद कर रहे थे, इसीलिए मुझे आना पड़ा" माँ ने कहा .
"माँ आपका लाख लाख धन्यवाद " आकाश नतमस्तक हो गया, फिर कुछ देर रूककर बोला "माँ आप तो जानती ही हैं कि मैं एक सच्चाई की लड़ाई लड़ रहा हूँ, लेकिन माँ मैं बिलकुल अकेला हो गया हूँ, कोई भी नहीं है मेरे साथ" उदासी भरी आवाज़ में आकाश ने कहा कुछ रूककर फिर बोला "आज के दौर में झूठ भागता है और सच के जैसे पाँव ही ना हों ऐसे लँगड़ा चलता है। झूठों की जय जयकार होती है और सच्चे की तरफ कोई देखता तक नहीं।"
"सत्य के साथ रहने वालों का यही हाल होता है। वह हमेशा अकेला ही खड़ा होता है और भीड़ झूठे के साथ होती है। " माता ने कहा
"तो फिर आप इस सिस्टम को सुधारते क्यों नहीं ? " आकाश ने शिकायत भरे लहज़े में कहा।
"यह सिस्टम भी तुम इंसानों का ही बनाया हुआ है।" कुछ देर रूककर माता फिर से बोलीं "मगर एक बात हमेशा याद रखना कि झूठ के पाँव नहीं होते और वो ज़यादा दूर तक दौड़ नहीं सकता और सच एक सूरज के सामान है जिसे उजागर होने से कोई रोक नहीं सकता।" कुछ देर रुक कर माँ ने फिर कहा बस इतना याद रखना "बुरे कर्म करते समय इंसान यह भूल जाता है कि उसके कर्म ही उसके भाग्य का फैंसला करेंगे। तुम्हारे कल के किये हुए कर्म ही तुम्हारा आज का भाग्य है और तुम्हारे आजके किये हुए कर्म ही तुम्हारे कल का भाग्य तय करेंगे। इसलिए अपने कर्मो को सुधारो ताकि तुम्हारा कल न बिगड़े।"
"बस माँ, आपके इतना कहने में मेरे सारे सवालों के उत्तर मुझे मिल गए। मैं धन्य हो गया, अपने आप को बड़ा ही हल्का महसूस कर रहा हूँ। "
"तो फिर मैं अब चलती हूँ। " माता ने मुस्कुराते हुए कहा।
"नहीं माँ आज यहीं रुक जाओ। मैं आपके लिए मिठाई लाता हूँ। मैं अपने हाथों से आपके लिए खाना बनता हूँ "
कहता हुआ आकाश भागा भागा सा रसोई घर में गया।
चन्द मिनटों बाद जब वह वापस कमरे में लौटा तो उसने देखा वहां कोई नहीं था। आकाश अपने हाथ वाली प्लेट वहीँ टेबल पर रख कर बालकनी की तरफ भागा, वहां भी कोई नहीं था।
तभी उनको देखते ही एक पडोसी ने ज़ोर से हँसते हुए आकाश से पूछा "अरे..... वो औरत क्या कर रही है ?" और ज़ोर से ठहाका मार कर हंसने लगा।
आकाश मायूस सा कमरे में आकर सोफे पर बैठ गया।
काफी देर वह कमरे में बैठा कुछ सोचता रहा, फिर मन बहलाने के लिए बाहर का एक चक्कर लगा आने का सोचा।
मुख्य दरवाज़ा बंद करके वह निचे उतर ही रहा था कि सामने से सीढियाँ चढ़ कर आते हुए उनके एक और पडोसी ओमप्रकाश ने कहा "अरे आकाश बाबू क्या बात है उस औरत को घर में ही बंद करके अब कही मिल्ट्री को बुलाने तो नहीं न जा रहे है ?" और ज़ोर से ठहाका मार के हंसने लगे।
आकाश मन ही मन फुसफुसाया " जय मातादी " और आगे बढ़ गया।
ROMY KAPOOR (Kapildev)